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* प्रासादपरिघादिपदानामन्वाख्यानम् *
३०१ पासाय-खंभ-तोरण-गिहाइजोग्गा य णो वए रुक्खे। कारणजाए अ वए, ते जाइप्पभिइगुणजुत्ते।।१०।। प्रासादः = एकस्तम्भः, स्तम्भस्तु स्तम्भ एव, तोरणानि = नगरतोरणादीनि, गृहाणि = कुटीरकादीनि, आदिपदात् परिघाऽर्गला
एकेन्द्रियेषु वनस्पतिकायं प्रतिभणति - 'पासाय'त्ति । एकस्तंभ इति । प्रवृत्तिनिमितं पुरस्कृत्यैतदभिधानम् । प्राचीनतमचूर्णौ तु 'पसीदति जम्मि जणस्स मणो-णयणाणि सो पासादो' (द. वै. अ. चू. पृ. १७१) इति व्युत्पत्तिनिमित्तं पुरस्कृत्योक्तम् । परिघेत्यादि । ननु परिघार्गलयोः को विशेषः? उच्यते परितो हन्तीति परिघ उच्यते। तदुक्तं सर्वतन्त्रसिद्धान्तपदार्थलक्षणसङ्ग्रहे - 'कण्टकितो लोहदण्डः' इति। कपाटादिरोधिका त्वर्गला उच्यते। अभिधानचिन्तामणिवृत्ता तु 'परिहण्यतेऽनेन परिघः, दारुमयो लौहो वा दण्ड' इत्युक्तम् । श्री हरिभद्रसूरयस्तु 'तत्र नगरद्वारे परिघः, गोपुरकपाटादिष्वर्गला' इति वदन्ति । अगस्त्यसिंहसूरयस्तु 'फलिहं = कवाडणिरुंभणं तेसिं वा, उभयो पासपडिबंधि गिहादीकवाडनिरोधकट्ठमग्गला तेसिं वा' इति व्याचक्षते । अनेककाष्ठसङ्घातकृतं जलयानं नौरित्युच्यते ।
उदकद्रोणीति। अरहट्टजलधारिका इति श्रीहरिभद्रसूरयः । प्राचीनतमचूर्णिकारास्तु 'एगकट्ठे उदगजाणमेव, जेण वा अरहट्टादीण उदगं संचरति सा दोणि 'इति व्याख्यानयन्ति। चूर्णी तु' उदगदोणी अरहट्टस्स भवति, जीए उवरि घडीओ पाणियं पाडेंति अहवा उदगदोणी घरांगणए कट्ठमयी अप्पोदएसु देसेसु कीरइ, तत्थ मणुस्सा प्रहातंति आयमंति वा "(द.वै.जि.चू पृ. २५४) इत्युक्तम्। 'द्रोणी = काष्ठाम्बुवाहिनी' इति पदार्थलक्षणसङ्ग्रहे उक्तम् । यद्वा उदकयोग्यं काष्ठं द्रोणीयोग्य काष्ठमिति पृथगपि स्यात्। तदुक्तं आचाराङ्गे 'उदगजोग्गाइ वा दोणजोग्गाइ वा' (आ चा. २/
'गाय दूधार है', बैल युवा है' इत्यादि वाक्यों से दोहनादि क्रिया में निष्पाद्यत्व की = वर्तमान में स्वकर्तव्यत्व की बुद्धि नहीं होती है। अतः अधिकरणादि दोष की प्राप्ति नहीं होती - यह सब यहाँ दोहरा कर कहने की जरूरत नहीं है। सुज्ञ पाठक यह बात स्वयं सोच सकते हैं और प्रदर्शित परिहार्य और अपरिहार्य वाक्यों का अर्थघटन अच्छी तरह कर सकते हैं। अतः इस बात का विस्तार करना यहाँ अर्थहीन समझा जाता है।।८९।।
गाथार्थ :- वृक्षों को देख कर ये प्रासाद-स्तंभ-तोरण-गृहादि के योग्य हैं। ऐसा नहीं बोलना चाहिए। कारण उपस्थित होने पर जाति आदि गुणों से युक्तरूप से कथन करना चाहिए।९०।
* देवादि को कुपित करनेवाली भाषा परिहार्य * . विवरणार्थ :- बड़े वृक्षों को देख कर ये वृक्ष प्रासादादि के योग्य है' इत्यादिरूप से कथन नहीं करना चाहिए। प्रासाद शब्द का वाच्यार्थ एक स्तंभवाला महल है। स्तम्भशब्द का अर्थ है खंभा। नगरद्वार पर जो काष्ठ की कमान होती है उसे तोरण कहते हैं। कुटीर आदि यहाँ गृहशब्द से अभिप्रेत है। आदिशब्द से परिघ आदि का विवरणकार ने ग्रहण किया है। नगरद्वार की अगडी को परिघ कहते हैं तथा गृहद्वार की अगडी को अर्गला कहा जाता है। नाव पदार्थ तो प्रसिद्ध है। उदकद्रोणी का अर्थ रहँट के जल को धारण करनेवाली - ऐसा दशवकालिकटीकाकार को अभिमत है। श्रीजिनदासगणिमहत्तर के अभिप्राय के अनुसार जिसमें रहँट की घड़ियाँ पानी डाले वह जलकुंडी या जो कम पानीवाले देशों में जल से भर कर रखी जाती है और जहाँ स्नान या कुल्ला किया जाता है वह काष्ठ की बनी हुई कुंडी उदकद्रोणी कही जाती है। श्रीअगस्त्यसिंहसूरी के अभिप्रायानुसार - एक काष्ठ के बने हुए जलमार्ग को द्रोणी कहते हैं अथवा काष्ठ की बनी हुई जिस प्रणाली से रहँट के जल का अन्यत्र संचार हो उसे द्रोणी कहा जाता
है।
पीठशब्द का अर्थ प्रसिद्ध है। चंगबेरा का अर्थ काष्ठमयी या वंशमयी पात्री है। लांगल का अर्थ है हल, जिससे खेती की जाती है। मयिक का अर्थ है कृषि का उपकरण, जो बोए गए बीजों को ढांकने के काम में लाया जाता है। यन्त्रयष्टि पद का अर्थ है यंत्र की लकडी। रथ या बैल-गाडी के चक्र के मध्य भाग को नाभि कहते हैं। सुवर्णकार जिस उपकरण के उपर सुवर्ण को कूटता है उसे गंडिका कहते हैं। उसे लोकभाषा में अहिगरणी या अधिकरणी भी कहते हैं। काष्ठ के फलक आदि आसन कहा जाता है। दशवकालिक टीका में आसन का अर्थ आसन्दकादि किया है। खाट, पलंग आदि शयनशब्द से अभिमत है। यान का अर्थ यहाँ
१ प्रासादस्तंभतोरणगृहादियोग्यान् च न वदेत् वृक्षान् । कारणजाते च वदेत् तान् जातिप्रभृतिगुणयुक्तान्।।१०।।