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________________ २९० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ८७ ० भविष्यकथननिषेध ० कालादीति । आदिना देशादिपरिग्रहो यथा अत्रैव या(स्था) स्यामः इत्यादि। शङ्कितेत्युपलक्षणं अनवधृतमप्यर्थं न वदेत् अवधृतं तु निमित्तादिना कथयेत्। अनवधृते तु गन्धादौ परस्य तदनुभवप्रश्ने 'न विभावयामि' इत्युत्तरयेत्। अनवधुतमिति । 'अविज्ञातमिति। तदुक्तं दशवैकालिके अईयंमि अ कालंमि पच्चुप्पण्णमणागए। जमटुं तु न जाणिज्जा एवमेअंति नो वए।। (द.वै. ७/८) अन्यत्र 'तिहेवाणागतं अट्ठे जं वऽण्णऽणुवधारितं। संकतिं पडुपण्णं वा एवमेयं ति णो वदे।। (द.वै.अ. ७/गा. ८) एवं पाठो वर्त्तते। क्वचिच्च 'तं तहेव अईयंमि कालंमिऽवधारियं । जं चण्णं संकियं वा वि एवमेअंति नो वए' ।। इत्येवं पाठः। तदुक्तं प्राचीनतमचूर्णी 'अणागतं अटुं ण निद्धारेज्ज जधा कक्की अमुको वा एवंगुणो राया भविस्सति।' (द.वै.अ.चू.पृ. १६६) अनवधते तु। तदुक्तं श्रीजिनदासगणिमहत्तरैः अणवधारियं णाम जं सव्वहा अपरिण्णायं तं अणवधारियं भवइ। तत्थ अणागतं जहा सो सव्वधा अणवधारिओ अणागओ अत्थो सो विधिणा णिमित्ताईहिं ण अप्पणो इच्छाए वत्तव्वो जहा अमुगे काले अमुगं भविस्सइ त्ति, तहा अतीतमपि अणवधारियं तहावि णो वदेज्जा जहा परेण पुट्ठो किं तेण भणियं? उदाहु भणितंति एवं गंधरसफासा भाणियव्वा । पडुप्पण्णेऽपि जइ कोऽवि भणेज्जा, जहा सद्दो तुमे सुतो न सुओ वा? तत्थ स अणुवलब्भमाणं णो अप्पणो इच्छाए भासेज्जा किन्तु तत्थ एवं भाणियव्वं जहा 'न विभावयामि'त्ति । एवं रूवं पुच्छिओ किमेयं दीसइ? तत्थवि अणुवलब्भेमाणो ण जाणामित्ति बूया। गंधेऽपि कस्सेस गंधोत्ति? तत्थ अणुवलब्भमाणो ‘ण जाणामि'त्ति। रसेऽवि कस्सेस रसोत्ति? तत्थवि अणुवलब्भमाणो ण जाणामित्ति। फासे जहा * देशशंकित भाषा अवक्तव्य * कालादीत्यादिना. इति। काल आदि शंकित भाषा का प्रयोग अनुज्ञात नहीं है ऐसा जो कहा गया है इसमें जो 'आदि' पद है उससे देशादि का ग्रहण अभिप्रेत है। अर्थात् कालशंकित भाषा की तरह देशशंकित भाषा भी तीर्थंकर-गणधरादि भगवंतों से अनुज्ञात नहीं है। जैसे कि हम यहाँ ही रहेंगे' इत्यादि भाषा। जिस स्थान में रहने का निश्चित न हो तब आधारविधया भाषा का विषयभूत देश शंकित हो जाता है। उस अवस्था में' हम यहीं रहेंगे' ऐसा निश्चयात्मक कथन करना अपने पाँवों में कुल्हाडी मारने जैसा है, क्योंकि संयोगवश उसी स्थान में जब रहने का न बने तब वह भाषा मृषा बन जाती है और साधु के उपर मृषावादित्व का कलंक आता है। इसी सबब देशशंकित भाषा भी बोलने के लिए साधु के लिए निषिद्ध है। * अनवधृत भाषा अवाच्य है * शंकितेत्युपलक्षण. इति। कालादिशंकिता में जो 'शंकिता' पद है वह उपलक्षण है अर्थात् शंकितपद से अन्य का ग्रहण भी अभिप्रेत है। वह है अनवधृत अर्थ। अर्थात् कालादिशंकित भाषा की तरह कालादिअनवधृत भाषा भी निषिद्ध है। अनवधृत का अर्थ श्रीजिनदासगणी के अभिप्राय से सर्वथा अपरिज्ञात है। जिस क्रिया का या घटना का कालादि सर्वथा अज्ञात हो तादृश भाषा का प्रयोग साधु भगवंत के लिए निषिद्ध है। जैसे 'देवदत्त कल आयेगा या नहीं' - ऐसा मालुम न होने पर भी किसीसे यह कहना कि 'देवदत्त कल आयेगा' यह कालअनवधृत भाषा है। इस भाषा का प्रयोग त्याज्य है। इस तरह देश अनवधृत भाषा भी त्यक्तव्य है। यदि निमित्त आदि के बल से किसी घटना का अमुक काल या देश में होना निश्चितरूप से ज्ञात हो और उसको बताना जरूरी हो तब निमित्तादि के कथनपूर्वक उस घटना का बयान करना चाहिए। इसी तरह गंधादि का निश्चय न हो और 'यह किस चीज की गंध है?' इत्यादिरूप से अन्य व्यक्ति हमसे प्रश्न करे तब मुझे मालुम नहीं है' ऐसा प्रत्युत्तर देना चाहिए। अपना पांडित्य बताने के लिए यह गंध इस चीज की है' ऐसा कल्पित प्रत्युत्तर देना तीर्थंकर गणधरादि भगवंतों से साधु के लिए निषिद्ध है। . * उपघातक भाषा त्याजय है * या च व्य. इति। जो भाषा व्यवहार से सत्य हो मगर उपघातक हो यानी परपीडा की उत्पादक हो वह भाषा बोलने के लिए १/२ दृश्यतां अगस्त्यसिंहसूरिचूर्णी - १६६ तमे पृष्ठे। ३ दृश्यतां जिनदासगणिचूर्णी २४८ तमे पृष्ठ ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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