SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * कर्मग्रन्थविरोधविलयः * २८५ वइजोग सुअं हवइ सेसं।। (आ.नि.गा. ७८) ति। प्रसङ्गाद्वैतदभिधानमिति ध्येयम् ।।८४।। उक्ता श्रुतभावभाषा। अथ चारित्रभावभाषामाह। चारित्तविसोहिकरी सच्चा मोसा य अविसोहिकरी। दो एयाउ चरित्ते भावं तु पडुच्च णेयाओ।।८५।।' चारित्रविशोधिकरी यां भाषमाणस्य साधोश्चारित्रमुत्कृष्यत इत्यर्थः, सा सत्या मृषा च संक्लेशकरी यां भाषमाणस्याऽचारित्रपरिणामो वर्द्धत इत्यर्थः । इदमुपलक्षणं यां भाषमाणस्य चारित्रं तिष्ठति सा सत्या; यां भाषमाणस्य चारित्रं न तिष्ठति सा सति हि निमित्तं मृग्यते न तु निमित्तमस्तीत्युपचारेण भवितव्यम् । एवं श्रुतोपगृहीतावधिमनःपर्यायोपयोगशालिनां भाषायां श्रुतभावभाषात्वं स्वयं भावनीयम्। ननु श्रुतपरावर्त्तनादौ भावश्रुतविषयकोपयोगस्य लाभे किमिति द्रव्यश्रुतपर्यन्तानुधावनं क्रियत इत्याशंकायामाह प्रसङ्गाद्वेति । प्रकृते विषयविधया भावश्रुतस्य प्रक्रान्तत्वेऽपि श्रुतत्वसाम्येन द्रव्यश्रुतस्य तन्निरूपणस्मृतत्वात् तत्प्रतीत्य भाषाया अभिधानमिति भावः । अनेन प्रसङ्गसङ्गतिः प्रदर्शिता। एवञ्च केवलज्ञानोपयोगशालिप्रयुक्तभाषायां उपयोगविषयविधया भावश्रुतं यद्वा भावश्रुतविषयकभावभाषात्वं नास्ति। यद्यपि केवलिनि सत्यवचनयोगः कर्मग्रन्थादावुक्तः तथापि स द्रव्यभावभाषापेक्षया चारित्रभावभाषापेक्षया वा ज्ञेय इति न कश्चिद् विरोध इत्यादिसूचनाथ ध्येयमित्युक्तम् ।।८४।। अवसरसंगतिं प्रदर्शयति अथेति। संक्लेशकरीति। हेतुविशेषणमेतत्। ततः साऽसत्या संक्लेशकरीत्वादिति द्रष्टव्यम् । एवञ्च साधोर्यद वचनमसंक्लेशकरं चारित्राप्रतिपन्थि वा तच्चारित्रविषयकसत्यभाववचनम । यच्च संक्लेशकरं चारित्रप्रतिपन्थि वा तद्विपरीतमिति लक्षणे फलिते। अचारित्रपरिणामः = अविरतिपरिणामः चारित्रप्रतिपन्थिभावश्रुत का कारण है। कारण को आगम की परिभाषा में द्रव्य कहा जाता है जैसे कि जो मिट्टी भावघट का कारण है वह द्रव्यघट है, तंतु द्रव्यपट है इत्यादि। श्रोता में भावश्रुतज्ञानोत्पादकत्व की अपेक्षा से केवली का वचनयोग द्रव्यश्रुत कहा गया है। अतः नियुक्तिवचन से द्रव्यश्रुत की सत्ता केवली में सिद्ध होती है। अतः उसकी अपेक्षा से केवली में श्रुतभावभाषा का प्रतिपादन करना नितांत निर्दोष ही है। अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि श्रुतभावभाषा के तृतीय भेद में जो द्वितीय प्रकार बताया गया है वह प्रासंगिकरूप से बताया गया है न कि मुख्यरूप से। अर्थात् भावश्रुतविषयक भावभाषा का निरूपण करते करते स्मृत द्रव्यश्रुत के सम्बन्धी भावभाषा का भी निरूपण किया गया है। इस सम्बन्ध में शांति से ध्यान देने की सूचना दे कर विवरणकार ने श्रुतभावभाषा के निरूपण को जलांजलि दी है।।८४।। भावभाषा के प्रथम दो भेद द्रव्यविषयक भावभाषा और श्रुतविषयक भावभाषा का निरूपण करने के बाद भावभाषा के तृतीय भेद चारित्रविषयक भावभाषा का निरूपण प्रकरणकार ८५ वी गाथा से कर रहे हैं। ... गाथार्थ :- भाव की अपेक्षा चारित्रविषयक दो भाषा हैं सत्य और मृषा। जो भाषा चारित्र की विशुद्धि करती है वह चारित्रविषयक सत्य भावभाषा है और जो चारित्र को मलीन करती है वह चारित्रविषयक असत्य भावभाषा है।।८५।। * चारित्रविषयक भावभाषा के दो भेद * विवरणार्थ :- चारित्रविषयक सत्य और मृषा ये दो भाषा संभवित हैं। इनमें से सत्य भाषा वह कही जाती है जो चारित्र की विशोधक होती है अर्थात् उस भाषा को बोलने से साधु का चारित्र उत्कृष्ट बनता है, निर्मल बनता है। चारित्र में मृषा भाषा वह होती है जो अविशुद्धिकारक-संक्लेशकारक होती है, उसको बोलने से अचारित्रअविरति का परिणाम वृद्धिगत होता है। यहाँ सत्यभाषा को चारित्रविशोधिकरी और असत्य भाषा को चारित्र अविशुद्धिकरी ऐसा जो कहा गया है वह उपलक्षण है। अर्थात् सिर्फ चारित्र के उत्कर्ष की प्रयोजक होती है वही भाषा चारित्रविषयक सत्य भाषा है - ऐसा नहीं है मगर जिस भाषा को बोलने पर २ चारित्रविशोधिकरी सत्या मृषा चाऽविशोधिकती। द्वे एते चारित्रे भावं तु प्रतीत्य ज्ञेये।।८५।। ३ मुद्रितप्रतौ च 'मृषा च यां' इति पाठः । अग्रे च 'सा सत्या असंक्लेशकरी यां' इति पाठः।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy