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________________ २४० भाषारहस्यप्रकरणे स्त. ३. गा. ६६ • लक्ष्यतावच्छेदकघटकबाधाबाधाभ्यामद्धामिश्रितत्वनिरूपणम् ० कश्चित्सहायं त्वरयन् वदति - उत्तिष्ठोत्तिष्ठ रजनी वर्तत इति रात्रौ वा वर्त्तमानायां वदति उत्तिष्ठोत्तिष्ठोद्गतः सूर्य इति । नन्वियं मृषैव दिवसे रजनीवर्त्तमानत्वस्य रजन्यां वा दिवससत्त्वस्य बाधात् । 'वर्त्तमानाद्यभिधायकवचनस्याऽव्यवहितोत्त्पत्तिकत्वे लक्षणायां च 'सत्यात्वमेवेति नातिरेक इति चेत् ? न लक्ष्यतावच्छेदकघटकव्यवधानाभावकूटेंऽशतो बाधाबाधाभ्यामुभयरूपसमावेशाद् अन्यथा प्रहरान्तरव्यवधानेऽपि तथाप्रयोगप्रसङ्गात् । पदान्तरे लक्षणा च नानुशासनस्वरससिद्धेत्याभाति । । ६६ ।। प्रयोजनवशादिति । अनेन निष्प्रयोजनं तथाभणने मृषात्वमेवाऽवसीयते । अपरिणतः = अनस्तमितदशायामित्यर्थः । नन्वत्र शक्त्या शाब्दबोधोऽभ्युपगम्यते लक्षणया वेति विकल्पयुगली प्रोन्मीलतीत्याशयेन शङ्कते कश्चिन्नन्विति । तत्र प्रथमे प्राह मृषैवेति । हेतुमाह दिवस इत्यादि । पूर्वापरक्षितिद्वयमध्यवर्तिसूर्यकिरणावच्छिन्नकालरूपदिवसस्य सूर्यमण्डलाऽदर्शनयोग्यकालरूपरजनीविरुद्धत्वेन रजनीवर्त्तमानत्वाभावव्याप्यदिवसवर्त्तमानत्ववति रजनीवर्त्तमानत्वस्याऽयोगात् व्यापकाभावेन व्याप्याभावनिर्णयाद्रजन्यां दिवससत्त्वाभावनिर्णयादित्यत्र तात्पर्यम्। द्वितीये वदति वर्त्तमानाद्यभिधायकवचनस्येति वर्त्ततेऽस्ति, भवतीत्यादिवचनस्येति । अव्यवहितोत्पत्तिकत्वे लक्षणायामिति । तेन 'रजनी वर्त्तत' इत्यस्य 'अव्यवहितोत्तरकालोत्पत्तिका रजनी' त्यर्थः । ततः किमित्याह सत्यात्वमेवेति । रजन्यामव्यवहितोत्तरकालोत्पत्तिकत्वस्य सत्त्वेन प्रमाजनकत्वात्सत्यात्वमेव न तु मृषात्वं भ्रमजनकत्वाभावादित्याशयः। तं निरसितुमाह नेति। लक्ष्यतावच्छेदकघटकव्यवधानाभावकूट इति । लक्ष्यतावच्छेदकीभूताव्यवहितोत्पत्तिकत्वघटकीभूतव्यवधानाभावकूट इत्यर्थः, एकक्षणव्यवधानक्षणद्वयव्यवधानक्षणत्रयव्यवधानाद्यभावसमूह इति भावः । उभयरूपजाता है। जैसे कि दिन पूर्ण होने के पूर्व में ही कोई अपने सहायक मित्र को स्फूर्ति से त्वरा करता हुआ कहता है कि- 'औ! उठ उठ, अब तो रात हो चूकी है।' यह भाषा अद्धामिश्रित सत्यामृषास्वरूप है। वैसे रात विद्यमान होने पर भी कोई अपने सहायक को उठाने के उद्देश से कहता है कि 'ओ भाईजान ! उठ, उठ, अब तो सूरज भी उदित हो चुका है।' यह भी अद्धामिश्रित सत्यामृषा भाषा का ही उदाहरण है। व्यवहार में इस तरह अनेक प्रयोग दिखे जाते हैं। बहुत सोनेवाले आदमी को जगाने के लिए और काम में जोडने के लिए सूर्योदय को कुछ देर होने पर भी 'सूर्योदय हो गया, अब तो उठो ।' इत्यादि प्रयोग किया जाते हैं। यहाँ वास्तव में सूर्योदय नहीं हुआ है। अतः रातरूप काल से कथितकाल मिश्रित हो जाता है। अतः इस भाषा को अद्धामिश्रित कहा जाता है। * अद्धामिश्रितभाषा सत्यामृषा नहीं है- नैयायिक * नैयायिक :- नन्वियं इति । अद्धामिश्रित भाषा को सत्यामृषा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि दिन को रात कहना या रात को दिन कहना केवल मृषा ही है। दिन में रात की सत्ता बाधित होने से अद्धामिश्रित भाषा का प्रदर्शित प्रथम उदाहरण और रात में दिन की सत्ता बाधित होने से प्रदर्शित द्वितीय उदाहरण भी सर्वथा मृषा ही है। यदि यहाँ 'रजनी वर्तते' इसमें वर्तमानत्व के अभिधायक 'वर्तते' पद की अव्यवहितोत्पत्तिकत्व में लक्षणा मानी जायेगी तब तो यह भाषा सर्वथा सत्य ही हो जायेगी। आशय यह है कि शब्द में शक्ति और लक्षणा ये दो वृत्ति रहती हैं जिनके बल पर शब्द अर्थबोध कराता है। शब्द का जो मूल अर्थ होता है उसमें उस शब्द की शक्ति रहती है जैसे कि 'गंगायां जलं' इत्यादि में गंगापद की जलप्रवाहविशेष में । मूल अर्थ से संबद्ध वस्तु में शब्द की लक्षणा होती है जैसे कि 'गंगायां घोष:' में गंगापद की तीर में। जब शक्यार्थ का बाध होता है तब लक्ष्यार्थ का आश्रय कर के वाक्य से अभ्रान्त शाब्दबोध माना जाता है। यहाँ पर 'वर्त्तते' पद की शक्ति है विद्यमानता में। मगर शक्ति से शाब्दबोध के स्वीकार में भ्रमात्मक शाब्दबोध होने से अद्धामिश्रित भाषा में सर्वथा असत्यत्व की आपत्ति आती है। इसका निवारण करने के लिए 'वर्त्तते' पद की अव्यवहितोत्पत्तिकत्व में लक्षण मानी जाय तब 'रजनी वर्त्तते' का अर्थ होगा- रात की अव्यवहितोत्तर काल में उत्पत्ति होनेवाली है । यह अर्थ तो सही है, क्योंकि सूर्यास्त की १०/१५ मिनट पूर्व में यह वाक्य कहा जाता है तब तो रात्री की उत्पत्ति (उदय) अव्यवहितोत्तर काल में होनेवाली ही है। अतः लक्षणा से शाब्दबोध का निर्वाह करने पर यह भाषा सत्य सिद्ध हो जायेगी और शक्ति से शाब्दबोध का स्वीकार करने पर यह भाषा मृषा सिद्ध हो जायेगी । इतो व्याघ्रः इतस्तटी । आगे कुआँ पीछे खाई! शक्ति या लक्षणा को छोड़ कर शाब्दबोध का अन्य कोई प्रकार है ही नहीं । अतः अद्धामिश्र भाषा का सत्यामृषा भाषा के विभाग में प्रदर्शन करना युक्तिसंगत नहीं है। १. वर्त्तमानावदभिधायक-इति मुद्रितप्रतौ पाठोऽशुद्धः । २. सत्यत्व- इति पाठान्तरं मुद्रितप्रतौ ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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