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* मिश्रभाषालक्षणप्रकाशनम् *
सत्यामृषात्वं इत्युक्तावपि न क्षतिः ।
वस्तुतस्तु एवं सत्यो (? सति) मृषाभेदोच्छेदापत्तिः सर्वस्या अप्यसत्याया अंशे सत्यत्वात् सर्वं ज्ञानं धर्मिण्यभ्रान्तं इति न्यायात् विनिश्चये - यथा यत्राऽविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता ।। (सि. वि. १ / १९) सत्यामृषात्वमिति । अंशभेदेन भ्रमप्रमाजनकत्वात्सत्यामृषात्वमापाद्यत इति भावः । अतिपरिस्थूलव्यवहारनयाभिप्रायेणेष्टापत्तितयाऽङ्गीकरणायाऽऽह इत्युक्ता - वपि न क्षतिरिति । न न्यूनतादोष इति तात्पर्यम् ।
निश्चयानुगृहीतव्यवहारनयाभिप्रायेणाऽऽह वस्तुत इति । एवं सतीति । धर्मधर्म्यसापेक्षया भ्रमप्रमाजनकत्वेन सत्यामृषात्वाभ्युपगमे सतीत्यर्थः । मृषाभेदोच्छेदापत्तिरिति । मृषाभाषाविभागोच्छेदप्रसङ्ग इत्यर्थः । तत्रैव हेतुमाह सर्वस्या इति । तदेव समर्थयति - सर्वमिति । अभ्रान्तमिति । प्रमेत्यर्थः । भ्रमस्यापि धर्म्यंशेऽभ्रमत्वात् ।
यत्तु कैश्चित् - 'भ्रमस्य धर्मविषयकत्वावच्छेदेन दोषापेक्षा धर्मिविषयकत्वावच्छेदेन च तदनपेक्षेत्युच्यते तन्मन्दम् दोषापेक्षे भ्रमे तदनपेक्षाऽनभ्युपगमात् । न च दोषापेक्षे भ्रमे दोषानापेक्षा नाभ्युपगम्यते तदा धर्माश इव धर्म्यंशेऽपि भ्रमत्वं स्यादिति वाच्यम् धर्म्यंशे स्वभावादेवाऽभ्रमत्वात् । तदुक्तं तत्त्वचिन्तामणौ न ह्येकस्मिन् ज्ञाने जनयितव्ये तदपेक्षा तदनपेक्षा च सम्भवति । (त. चि. प्रत्य. खं. पृ. ५६३) न चवमनेकान्तवादत्यागः सम्यगेकान्ताविनाभावित्वादनेकान्तस्य। तदुक्तं वादिदेवसूरिभिः नयगोचरापेक्षया त्वेकान्तात्मकत्वस्याऽपि स्वीकारात् । (स्या. र. ५/८ - पृ. ८३५) इत्यलं प्रसक्तानुप्रसक्तेन ।
मृषाभाषा में भी सत्यत्व और असत्यत्व रहता है। आशय यह है कि भ्रम का लक्षण है अतस्मिंस्तदवगाहिता । अर्थात् जो जैसे न हो उसका वैसे बोध होना। प्रमा का लक्षण है 'तद्वति तदवगाहिता' अर्थात् जो जैसा है वैसा ही उसका भान होना । अब देखिये, चकमक आदि दोष के कारण सीवी में "यह चाँदी है" ऐसा ज्ञान हो जाता है। यह ज्ञान धर्मी अंश में तो प्रमा ही है, क्योंकि इस ज्ञान का धर्मी इदं = पुरोवर्ती पदार्थ है जिसका पुरोवर्तिरूप से ही बोध होता है। तथा धर्म अंश में यह ज्ञान अप्रमा है, क्योंकि इसका ज्ञान का धर्म है रजतत्व, जो कि पुरोवर्ती सीवी में नहीं है। अतः रजतत्वशून्य में रजतत्व का बोध कराने से यह ज्ञान धर्म अंश में भ्रमस्वरूप भी है। अतः "इदं रजतं" इस ज्ञान में भ्रमत्व और प्रमात्व रहता है। ठीक वैसे ही जब भूतल में घट न होगा तब 'भूतलं घटवत्' यह भाषा भी सत्य और असत्य होने से सत्यामृषा हो जायेगी। आशय यह है कि 'घटवद् भूतलं' इस वाक्य से श्रोता को जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसमें विशेष्यरूप से भूतल का भान होता है और घट का विशेषणरूप से भान होता है। उस ज्ञान के विशेष्यस्वरूप भूतल तो वहाँ है ही । अतः वह ज्ञान भूतलरूप धर्मी अंश में प्रमात्मक है। उस ज्ञान का विशेषणरूप घट वहाँ नहीं है, क्योंकि भूतल में घट का संयोग सम्बन्ध नहीं है। अतः घट रूप धर्म अंश में वह ज्ञान भ्रमात्मक है। इस तरह घटशून्य भूतल में 'घटवद् भूतलं' यह भाषा धर्मी अंश में प्रमाजनक होने से और धर्म अंश में भ्रमजनक होने से सत्यामृषा हो जायेगी। धर्मी अंश में प्रमाजनक होने से वह भाषा आंशिक सत्य है और धर्म अंश में भ्रमजनक होने से वह भाषा आंशिक असत्य भी है। अतः मुण्ड भूतल में 'घटवद् भूतलं' यह वचन सत्यामृषा हो जायेगा ।"
इत्युक्तावपि न क्षतिः । विवरणकार इन विद्वान मनीषियों के इस आशय की अत्यंत स्थूल व्यवहारनय की दृष्टि से स्वीकार करते हुए कहते हैं कि आपके इस कथन से भी हमारे मत में कोइ भी दोष न आयेगा । इसका कारण यह है कि दशविध सत्यामृषा भाषा का प्रदर्शित विभाग विशेषमिश्रभाषा का ही है, सामान्यमिश्रभाषा का नहीं । अतः दशभेद से अतिरिक्त भाषा में सामान्यतः सत्यामृषात्व का हम इन्कार नहीं करते हैं।
* धर्मी अंश में प्रमाजनकत्व मिश्रभाषात्व का आपादक नहीं है *
वस्तुतस्तु इति । विवरणकार ने जो भी अभी कथन किया है, वह अभ्युपगमवाद से ही जानना चाहिए। इसका कारण यह है कि धर्मी अंश में प्रमाजनक और धर्म अंश में भ्रमजनक भाषा को सत्यामृषा माना जाय तब तो द्रव्यविषयक भावभाषा के द्वितीय भेदरूप मृषाभाषा का ही उच्छेद हो जायेगा, क्योंकि 'सब ज्ञान धर्मी अंश में तो अभ्रान्त ही होता है' इस न्याय से सब मृषाभाषा