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१८८ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३५
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● तदन्यवस्तूपन्यासे विशेषव्याख्यानप्रदर्शनम् ० तदन्यवस्तूपन्यासस्तुल्यवस्त्वन्तराश्रयणेन यथा पूर्वोदाहरण एव यानि पुनः फलानि पातयित्वा कश्चिद्भक्षयति गृहे नयति वा तानि किं भवन्तीति लोके । चरणकरणानुयोगे तु न 'मांसभक्षण इत्यादौ यथाश्रुत एव कुग्रहे 'न हिंस्यात् सर्वाभूतानि (छान्दो. उप.
वस्तुतस्त्वत्र नैयायिकप्रयोगे सर्वथाऽमूर्त्तत्वस्य संसारिजीवेष्वसत्त्वेन पक्षैकदेशासिद्धिः, साध्यविकलश्च दृष्टान्तः, कर्मणा हेतुरनैकान्तिक इत्यादिदूषणप्रदर्शनं कर्त्तव्यं न तु जातिप्रयोगः कर्त्तव्यः । तदुक्तं प्रमाणमीमांसायां - 'सम्यगुत्तरमेव वक्तव्यं, न प्रतीपं जात्युत्तरैरेव प्रत्यवस्थेयमासमञ्जस्यप्रसङ्गादिति" (प्रमा. मी. २/१/२९ वृत्ति) ।
अत्र स्थानाङ्गवृत्तौ तु - "अकर्ताऽऽत्माऽमूर्त्तत्वादाकाशवदित्युक्ते अन्य आह- आकाशवदेवाऽभोक्तेत्यपि प्राप्तमनिष्टं चैतदिति। यथा वा मांसभक्षणमदुष्टं प्राण्यङ्गत्वादोदनादिवत्, अत्राऽऽहाऽन्यः - ओदनादिवदेव स्वपुत्रादिमांसभक्षणमप्यदुष्टमिति। यथा वा त्यक्तसङ्गा वस्त्रपात्रादिसङ्ग्रहं न कुर्वन्ति ऋषभादिवत् अत्राऽऽह-कुण्डिकाद्यपि ते न गृह्णन्ति तद्वदेवेति। तथा कस्मात्कर्म कुरुषे ? यस्माद् धनार्थीति । इह प्रथमं ज्ञातं समग्रसाधर्म्यं, द्वितीयं देशसाधर्म्यं, तृतीयं सदोषं चतुर्थं प्रतिवाद्युत्तररूपमित्ययमेषां स्वरूपविभाग" इत्यप्युक्तमिति सूचनाय ध्येयमित्युक्तम् ।
किं भवन्तीति। न किञ्चिदित्यर्थः । स्थानाङ्गवृत्तौ तु "अयमपि ज्ञापकतया ज्ञातमुक्तः, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेषः । तथाहि - न जलस्थलपतितानि पत्राणि जलचरादिसत्त्वाः सम्भवन्ति, मनुष्याद्याश्रितानीव । अयमभिप्रायो यथा जलाद्याश्रितत्वात् जलचरादितया तानि सम्पद्यन्ते तथा मनुष्याद्याश्रिततया मनुष्यादिभवयूकादितयाऽपि सम्पद्यन्ताम्, आश्रितत्वस्याऽविशेषात्। न च तानि तथाऽभ्युपगम्यत इति जलादिगतानामपि जलचरत्वाद्यसम्भव" इत्यधिकं व्याख्यातम्। वाद्युपन्यस्तवस्तुनः फलपतनादन्यवस्तुनः फलभक्षणादेरुपन्यासात् तदन्यवस्तूपन्यासत्वं विभावनीयम् । जाने से वह हेतु व्यभिचारी = व्यभिचारदोषग्रस्त है। पूर्व में हमने जो बताया कि - गमनादि क्रिया की तरह अमूर्त होने से जीव अनित्य होगा - वह नैयायिक दर्शन के अभिप्राय से साधर्म्यसमजातिस्वरूप है । द्रष्टान्त के साधर्म्य से प्रत्यवस्थान = विपरीत तर्क लगाना यह साधर्म्यसम जाति है। गमनादि क्रिया रूप द्रष्टांत के साधर्म्य से जीव में अनित्यत्व का आपादन करने से उसमें साधर्म्यसम जाति का लक्षण ठीक तरह संगत होता है। इस विषय में शांति से सोचने की सूचना कर के विवरणकार तवस्तूपन्यास के व्याख्यान को जलांजलि देते हैं ।
* तदन्यवस्तु उपन्यास २/४*
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तदन्य. इति । पुनरुपन्यास के द्वितीय भेद तदन्यवस्तु उपन्यास का उपन्यास करते हुए विवरणकार कहते हैं कि - वादी से प्रदर्शित वस्तु से भिन्न तथा उसके तुल्य वस्तु का उपन्यास जिस उदाहरण में किया जाता है, वह तदन्यवस्तूपन्यास उपमान कहा जाता है। इसमें लौकिक उदाहरण संन्यासी का है, जो कि तद्वस्तु उपन्यास के लौकिक उदाहरण में प्रदर्शित किया गया था । उसमें विशेषता इतनी है कि संन्यासी से उपन्यस्त फलपतनरूप वस्तु अन्य वस्तु का उपन्यास करना । जैसे कि कोई मनुष्य उस पेड़ के फल को गिरा कर खा जाता है या घर ले जाता है उसका क्या होता है? अब यहाँ संन्यासी कुछ भी बोल न सकेगा, क्योंकि भूमिपतन और जलपतन को छोड़ कर अन्य भक्षण-नयन आदि वस्तु के संबंध में उसके पास कोई युक्ति ही नहीं है । अतः पूर्व में जो कहा था कि जो फल भूमि पर गिरता है वह स्थलचर प्राणी होता है और जो पानी में गिरता है वह जलचर प्राणी बनता है - वह भी निर्युक्तिक हो जायेगा ।
* चरणकरणानुयोग में तदन्यवस्तूपन्यास *
चरण. इति । चरण-करणानुयोग के अधिकार में तदन्यवस्तु उपन्यास का उदाहरण 'न मांसभक्षणे' इत्यादि वचन के सामने विरोधी अन्य वचन का उपन्यास करना यह है जैसे कि 'न हिंस्यात् सर्वाभूतानि' अर्थात् किसी प्राणी की हत्या नहीं करनी चाहिए। आशय यह है कि परवादी 'न मांसभक्षणे दोष' इत्यादि शास्त्र वचन को बताता है तब उसके सामने उससे विरुद्ध अन्य शास्त्रवचन बताना चाहिए कि तब 'न हिंस्यात्' उस शास्त्रवचन का अर्थ क्या होगा? इसकी संगति कैसे होगी ? इस तरह पापवचन = सावद्यवचन का परिहार करना यह चरणकरणानुयोग में अधिकृत तदन्यवस्तु उपन्यास का उदाहरण है।
१ मुद्रितप्रतौ तु 'मांस इत्यादौ' इति पाठः ।