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* आत्मसिद्धिः *
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लौकिकमर्थाक्षिप्तं चरणकरणानुयोगमधिकृत्य चोक्तम् । द्रव्यानुयोगमधिकृत्य पुनरादानाद्युपायेनात्मास्तित्वसाधननिदर्शनं द्रष्टव्यम् ॥ २ ॥
स्थापना च दोषाच्छादनेना भीष्टार्थप्ररूपणा । तत्र लोके हिङ्गुशिवप्रवर्त्तकस्य निदर्शनम् लोकोत्तरे च प्रमादवशाद्गच्छस्खलितस्य छादनेन कयाचित्कल्पनया प्रवचनं प्रभावयत इति चरणकरणानुयोगं लोकं चाधिकृत्य। द्रव्यानुयोगमधिकृत्य तु नयभेदमतापेक्षया दुष्टहेत्वभिधानेऽपि तथाविधाभिप्रायेण तत्समर्थनं द्रष्टव्यम् । ३ ।
आदानादीति । आदानं नाम समानाधिकरणकृतिजन्यग्रहणानुकूलव्यापारः, ग्रहणजनककृतेर्धर्मत्वाद्धर्मस्य चावश्यमनुरूपेण धर्मिणा भवितव्यम् । न च भूतसमुदायमात्र एव देहोऽस्यानुरूपो धर्मी, तस्याचेतनत्वात् कृतेश्च चेतनत्वादिति । अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु धर्मसंग्रहण्यादितोऽवसेयम् । आदिपदेन सुखदुःखेच्छाभयद्वेषादिग्रहणम् । तदुक्तम् 'उवओगजोगइच्छाविलक्खणाणबलचेट्ठियगुणेहिं । अणुमाणा णायव्वो अग्गिज्झो इंदियगुणेहिं ।। जो चिट्ठइ कायगतो जो सुहदुक्खस्स वेदणां णिच्चं । विसयसुहजाणओ वि य सो अप्पा होइ णायव्वो ।। (दश.जि.चू. पृ. ४६ ) हिगुशिवेति । श्रीजिनदासगणिमहत्तरेण "तं च किंचि अत्थं तारिसं परूवेऊणं अत्तरुइयस्स अत्थस्स परूवणं करेइ एवं जहा पुंडरीज्झयणे पुंडरीयं परूवेऊण अण्णाणि मयाणि दूसियाणि निव्वयणं च सव्वनयविसुद्धं पवयणमुवदिट्टं एवमादि ठवणाकम्मं भण्णइ" इत्युक्त्वाऽनन्तरं 'अहवे' त्यादिना हिंगुशिवोदाहरणं प्रदर्शितम् । केनाऽपि मालाकारेण राजमार्गपुरीषोत्सर्गलक्षणापराधापोहाय तत्स्थाने पुष्पपुञ्जकरणेन 'किमिदमिति पृच्छतो लोकस्य 'हिंगुशिवो देवोऽयमिति वदता व्यन्तरायतनस्थापना कृता । कयाचिदिति । यदि केनाऽपि यतिना किञ्चिदपभ्राजनाकार्यं प्रमादेन कृतं भवेत्तदा तथा प्रच्छादयितव्यं यथा प्रवचनमालिन्यं न स्यात् प्रत्युत प्रवचनप्रभावना भवेत् । तदुक्तम् "संजाए उड्डाहे जह गिरिद्धेहिं कुसल बुद्धिहिं । लोयस्स धम्मसद्धा पवयणवण्णेण सुट्ठ कया । । कल्पभाष्येऽपि - "औद्धंसितो य मरुतो साहू पत्तो जसं च कित्तिं च । । (क.भा.गा. १७१६) द्रव्यानुयोगमधिकृत्येति । अत्र "सव्वभिचारं हेतुं सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उववूहइ सप्पसरं सामत्थं चप्पणो णाउं । । ( दश.नि.गा. ६८) इति निर्युक्तिगाथाभावार्थं प्रदर्शयद्भिः श्रीहरिपुरुष, चोर, राक्षस और माली के सम्बन्धवाली एक लम्बी-चौडी कहानी सुना कर अंत में चांडाल चोर को पकडते हैं। इस तरह चांडाल चोर के भावों को जानने के लिए बुद्धिनिधान अभयकुमार ने कहानी रूप उपाय का आश्रय लिया था। यह लौकिक भावोपायविषयक उदाहरण है, जो अर्थ = मनोगत भाव का आक्षेप करता है। यह चरणकरणानुयोग में अधिकृत है।
द्रव्यानुयोग में अधिकृत भावोपाय उदाहरण को बताते हुए विवरणकार कहते हैं कि आत्मसत्तास्वरूप भाव के उपाय यानी आत्मास्तित्वस्वरूप भाव के निश्चय के साधन आदानादि है। आदान का अर्थ है ग्रहण । आदि पद से त्याग आदि ग्राह्य हैं। अर्थात् अभिलषित वस्तु के ग्रहण और अनिष्ट वस्तु के त्याग से आत्मा की सिद्धि होती है, क्योंकि जड वस्तु में इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का परिहार स्वतः नामुमकिन है। अन्य किसीकी प्रेरणा के बिना ही अभिलषित वस्तु का ग्रहणादि चेतन आत्मा की सिद्धि करते हैं। अतः ग्रहणादि के आश्रयरूप से आत्मा की सिद्धि होती है।
* स्थापना उदाहरण ३/१ *
स्थापना. इति । उदाहरण के तृतीय भेद स्थापना का अर्थ है दोष का आच्छादन कर के अपने इष्ट अर्थ की प्ररूपणा । अपनी टट्टी को पुष्प से आच्छादित कर के देवपूजा का ढोंग रचा कर हिंगुशिव के प्रवर्तक माली का उदाहरण लौकिक स्थापना में प्रसिद्ध है। इस तरह जब प्रमाद आदि से साधु की स्खलना हो जाय तब अपनी कल्पना से दोष का आच्छादन करना और शासनप्रभावना करना यह लोकोत्तर स्थापना का उदाहरण है। इस सम्बन्ध में अतिप्रसिद्ध उदाहरण एक साधुभगवंत का है, जिसको मिथ्यादृष्टि अवस्थावाले श्रेणिक महाराजा ने जिनशासन की हीलना- बदनामी के लिए एक मंदिर में, जिसमें पूर्वसंकेतित वेश्या रही हुई थी, बंद कर दिये थे। साधु महात्मा ने वहाँ अपनी बुद्धि के बल से जिनशासन की महान प्रभावना की थी। चरण करणानुयोग में अधिकृत स्थापना का और लोक में अधिकृत = लौकिक स्थापना का उदाहरण बताने के बाद अब विवरणकार द्रव्यानुयोग में अधिकृत स्थापना विषयक उदाहरण बताते हैं कि यदि वाद आदि में नयविशेष के अभिप्राय की अपेक्षा से दुष्ट हेतु का प्रयोग अनाभोग आदि से साधु कर बेठे तब जिस नय की दृष्टि से उस हेतु का समर्थन हो सके उस नय को प्रधान कर के उस हेतु के समर्थन