________________
* रूपपाके घटनानाशङ्गीकारः *
गन्धावश्यकत्वात् तन्नाशादिकल्पनायां मानाभावाद्, विलक्षणाग्निसंयोगादीनामेव पृथिवीगन्धनाशकत्वाच्चेति दिग् ।
त्वात् । अयं भावः गन्धवत्त्वस्य पृथिवीलक्षणत्वेन जलसम्पर्कात्पूर्वमपि शरावे गन्धवत्तायाः स्वीकर्तव्यत्वात्, अनुपलब्धिस्त्वनुत्कटत्वेनाप्युपपद्यते । न च गन्धसमवायिकारणत्वस्यैव पृथिवीलक्षणत्वमभ्युपगम्यत इति वाच्यम् सम्भवति लघौ, गुरुधर्मे तत्स्वीकारस्यानौचित्यात् । अस्तु वा तथा तथापि तत्र गन्धः सिध्यति । कथमन्यथा तद्भस्मनि गन्ध उपलभ्यते? भस्मनो हि शरावध्वंसजन्यत्वेन शरावोपादेयत्वं सिध्यति । एतेन यद्द्द्रव्यं यद्द्रव्यध्वंसजन्यं तत्तदुपादानोपादेयमिति व्याप्तेरिति न्यायसिद्धान्तमुक्तावलिकारवचनं निरस्तम् यद्द्रव्यं यद्द्द्रव्यध्वंसजन्यं तत्तदुपादानोपादेयमित्यपेक्षया तत्तदुपादेयमिति व्याप्तेरेव लाघवेन स्वीकर्तव्यत्वात् एतच्चाष्टसहस्त्रीतात्पर्यविवरणे सुस्पष्टम् ।
ननु पाकेन शरावस्य आपरमाण्वन्तभङ्गात् तद्गतगन्धादयोऽपि विनश्यन्ति प्रतियोगितासम्बन्धेन समवायिकारणनाशस्य समवेतकार्यध्वंसकारणत्वादित्याशङ्कायामाह - तन्नाशादिकल्पनायां मानाभावात् = शरावनाशगन्धनाशादिकल्पनायां प्रमाणाभावात् ।
१३९
एतेन 'घटादेरामद्रव्यस्याग्निना सम्बद्धस्याग्न्यभिघातान्नोदनाद्वा तदारम्भकेष्वणुषु कर्माण्युत्पद्यन्ते तेभ्यो विभागाविभागेभ्यः संयोगविनाशाः संयोगविनाशेभ्यश्च कार्यद्रव्यं विनश्यति । तस्मिन् विनष्टे स्वतन्त्रेषु परमाणुष्वग्निसंयोगादौष्ण्यापेक्षाच्छ्यामादीनां विनाश (प्र.पा. भा. पृ. २५७ ) इत्यादि प्रशस्तपादभाष्यकारवचनमपास्तम्, तद्देशत्व-तत्संख्या-तत्परिमाणोपर्यवस्थापितकर्पराद्यपातादिप्रत्यक्षोपलम्भात्, अबाधितप्रत्यभिज्ञानाच्च परमाणुपर्यन्तनाशानभ्युपगमादित्यधिकं कल्पलतायामनुसन्धेयम् ।
गन्धाद्यनाशे हेत्वन्तरमाह-विलक्षणाग्निसंयोगादीनामेवेति । एवकारेण पाकप्रयोजकाग्निसंयोगस्य व्यवच्छेदः होती ही है, क्योंकि शराव में पृथिवीत्व रहता है। पृथिवी का लक्षण गन्धवत्त्व है। अतः जहाँ पृथ्वीत्व रहेगा वहाँ गन्ध रहेगी ही । यदि शराव में गन्ध न होगी तब शराव में पृथ्वीत्व भी नहीं रहेगा, क्योंकि व्यापक के अभाव से व्याप्य के अभाव की सिद्धि होती है। यहाँ अनुमान प्रयोग ऐसा हो सकता है कि शरावः गन्धवान् पृथ्वीत्ववत्त्वात् कस्तूरीवत् । पृथ्वीत्व और गन्ध के बीच व्याप्यव्यापक भाव होने से पृथ्वीत्वरूप हेतु से शराव में गंधरूप साध्य की सिद्धि निराबाध है।
* पिलुपाकवादी की शंका
शंका :- शराव में पृथ्वीत्व है यह हमें भी मान्य है, मगर जब कुम्हार मिट्टी के कच्चे शराव को पकाने के लिए अग्नि में डालता है तब अग्निसंयोग से शराव ही नष्ट हो जाता है तब शरावगन्ध बेचारी निराधार कहाँ रहेगी ? अतः शरावनाश के बाद शरावगन्ध का भी नाश हो जाता है और अन्य जीवों के अदृष्ट से नये शराव की उत्पत्ति होती है। यह हमारी मान्यता है ।
* गंधनाशकल्पना अयुक्त-स्याद्वादी
समाधान :- तन्नाशा. इती । शराव को अग्नि की भट्ठी में डालने से शरावनाश, शरावगंध आदि का नाश, नवीन शराव की उत्पत्ति आदि की कल्पना में कोई प्रमाण न होने से आपकी उपदर्शित मान्यता मनीषियों को मान्य नहीं हो सकती है। प्रमेयसिद्धि प्रमाण के अधीन होती है। आपकी बात में कोई भी प्रमाण नहीं है तब इसका कैसे स्वीकार होगा ? अन्यथा अन्य अप्रामाणिक वक्तव्य का भी स्वीकार करना होगा।
दूसरी बात यह है कि अग्निसंयोगसामान्य यानी सभी प्रकार का अग्निसंयोग गन्धनाशक नहीं होता है, मगर विलक्षण अग्निसंयोग ही पृथ्वी की गंध का नाशक होता है। शराव को पक्व बनानेवाला अग्निसंयोग वैसा विलक्षण नहीं है । गन्धनाशक अग्निसंयोग में जो वैजात्य रहता है वह वैजात्य पाकसंपादक अग्निसंयोग में नहीं होता है। पाक का मतलब है पृथ्वी के वर्ण-गंध आदि की परावृत्ति । पाकानुकूल अग्निसंयोग में गंधनाशकतावच्छेदक जातिविशेष न होने से उससे शरावगंध का नाश नहीं होता
है।