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________________ १३६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३० ० सापेक्षधर्माणां पारमार्थिकत्वप्रतिपादनम् ० ननु अणुत्व-महत्त्वादयो न भावाः परापेक्षप्रतिभासविषयत्वात्, ये ये भावास्ते न परापेक्षप्रतिभासविषया यथा रूपादयः, तथा च प्रतीत्यभाषाऽप्यसत्यैव तुच्छविषयत्वादिति चेत्? उच्यते 'ते होंति परावेक्खा वंजयमुहदंसिणोत्ति ण य तुच्छा। दिट्ठमिणं वेचित्तं सरावकप्पूरगंधाणं।।३०।। दूषितञ्च, तत्र नाऽऽद्यः, अन्धकारस्य शूर्पयुगलप्रस्फोटनाऽभावात्। न द्वितीयः, जलवाहस्य स्तम्भचतुष्ट याऽभावात्। न तृतीयः, बान्धवस्य लगुडभ्रामणाभावात्। न चतुर्थः, तस्या नरशिरःशतोद्गिरणाभावात्। ततो न किञ्चिदस्ति। किमेतावता द्विरदरूपं निवर्तताम्? नेति चेत्? तर्हि प्रमाणतः प्रतीयमाना अणुत्व-महत्वादयः कथं निवर्तन्ताम्? यद्यणुत्व-महत्त्वादयः परापेक्षप्रतिभासविषयाः स्युस्तर्हि भावा न स्युरिति व्याप्तिरेव नास्तीति प्रसङ्गे मूलशैथिल्यं विपर्यये च बाधं प्रदर्शयति- 'ते होति' इत्यादिना। अनेकान्तव्यवस्था-द्रव्यगुणपर्यायरास-स्याद्वादकल्पलताऽष्टसहस्त्रीतात्पर्यविवरणादावियं गाथा प्रकृतप्रकरणकारेणोद्धृता वर्तते। . * प्रतीत्यभाव काल्पनिक है - शंका * ... शंका :- ननु. इति । ज्ञान का विषय जब असत् काल्पनिक होता है, तब जैसे ज्ञान अप्रमाण कहलाता है ठीक वैसे ही जिस भाषा का विषय असत्-तुच्छ होता है वह भाषा भी असत्य कहलाती है, सत्य नहीं। यह सर्वजनविदित है। अतः प्रतीत्यभाषा भी सत्य नहीं है किन्तु मृषा ही है, क्योंकि प्रतीत्यभाषा का विषय तुच्छ-काल्पनिक होता है। यहाँ यह शंका करना उचित नहीं है कि - 'प्रतीत्यभाषा का विषय तुच्छ कैसे होगा?' - क्योंकि प्रतीत्यभाषा के विषय परसापेक्ष प्रतीति के विषय हैं। यह एक नियम है कि - जो पारमार्थिक सत्यभाव होते हैं वे सापेक्ष प्रतिभास के विषय नहीं होते हैं, जैसे रूप आदि पारमार्थिक भाव | घट आदि के रूप आदि धर्म का ज्ञान तो अन्य किसीकी अपेक्षा के बिना ही रूप आदि का बोध कराता है। जो सत्य है वह अन्य किसीकी अपेक्षा क्यों करे? तथा जो अपना ज्ञान कराने में अन्य किसीकी अपेक्षा रखे वह सत्य कैसे होगा? उसे काल्पनिक कहना ही ठीक रहेगा। देखिये, अनामिका अंगुलि का ज्ञान होने पर वह ज्ञान तुरंत ही अनामिका में अंगुलित्व आदि धर्म का निश्चय कराता है। अतः अनामिका में अंगुलित्व आदि धर्म पारमार्थिक सत्य हैं, मगर अनामिका का ज्ञान उत्पन्न होने पर भी उसमें ह्रस्वत्व-दीर्घत्व आदि प्रतीत्यभावों का ज्ञान तब तक नहीं होता है जब तक उनके व्यंजकनिमित्तभूत मध्यमा और कनिष्ठा का ज्ञान उत्पन्न न हो। अनामिका में ह्रस्वत्व या दीर्घत्व का ज्ञान कराने के लिए अनामिकाविषयक ज्ञान मध्यमाविषयक और कनिष्ठाविषयक ज्ञान की अपेक्षा रखता है। अतः ह्रस्वत्व-दीर्घत्व आदि धर्म परसापेक्ष ज्ञान के विषय होने से मिथ्या हैं, तात्त्विक नहीं। इसी तरह अणुत्वमहत्त्वादि सापेक्षभाव भी तुच्छ सिद्ध होते हैं। अतः काल्पनिक प्रतीत्यभाव विषयक प्रतीत्यभाषा भी असत्य ही सिद्ध होती है, सत्य नहीं। अतः प्रतीत्यभाषा का सत्यभाषा के अवान्तर भेद में परिगणन करना ठीक नहीं है। अतः सत्यभाषा का प्रदर्शित विभाग भी समीचीन नहीं है। इस शंका का समाधान श्रीमद्जी ३०वीं गाथा से बता रहे हैं। शंका होने पर उसका समाधान इस दुनिया में अवश्य प्राप्त हो सकता है। इस जगत में शेर को सवाशेर मिलना मुश्किल नहीं है। * प्रतीत्यभाव सापेक्ष होने पर भी वास्तविक है - समाधान * गाथार्थ :- प्रतीत्यभाव व्यंजक मुखदर्शी होने से परापेक्ष हैं, मगर वे तुच्छ नहीं हैं, क्योंकि शराव और कर्पूर की गंध में यह विचित्रता देखी जाती है कि मिट्टि के शराव की गंध अपने व्यंजक से व्यक्त होती है जब कि कर्पूर की गंध अपने आप ही प्रकट होती है, फिर भी दोनों ही गंध वास्तविक हैं। शराव की गंध परसापेक्ष होने पर भी तुच्छ नहीं है।३०। . विवरणार्थ :- अणुत्व-महत्त्व आदि प्रतीत्यभाव प्रतिनियतव्यंजक से व्यंग्य होने से अपना बोध कराने में परसापेक्ष होते हुए भी तुच्छ नहीं हैं किन्तु पारमार्थिक ही हैं। १ ते भवन्ति परापेक्षा व्यञ्जकमुखदर्शिन इति न च तुच्छाः। दृष्टमिदं वैचित्र्यं शरावकर्पूरगन्धयोः।।३०।।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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