________________
१२६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २९
० भासर्वज्ञमतनिरास: ० त्वादित्याशङ्कायामाह। भिन्ननिमित्तत्तणओ, ण य तेसि हंदि भण्णइ विरोहो। वंजयघडयाईयं होइ णिमित्तं पि इह चित्तं ।।२९।।
न च तेषां = विलक्षणप्रतीत्यभावानां, हन्दीति उपदर्शने भण्यते विरोधः, कुतः? भिन्ननिमित्तकत्त्वात् । एवं चाऽणुत्वमहत्त्वादयो न विरुद्धाः भिन्ननिमित्तकत्वात् सत्त्वासत्त्ववदिति प्रयोगो द्रष्टव्यः ।
भिन्ननिमित्तकत्वादिति। भिन्ननिमित्तकत्वे सापेक्षधर्माणामेकत्राऽपि समावेशान्न विरोधः, अभिन्ननिमित्तकत्वे एव विरोधः सम्भवति। तच्च नास्ति, अतो न विरोधः । अयं भावः, यदि कनिष्ठां मध्यमां वेकामगुलीमपेक्ष्य ह्रस्वत्वं दीर्घत्वं च प्रतिपाद्येत, ततो विरोधः सम्भवेत् एकत्र एकनिमित्तकपरस्परविरुद्धसप्रतियोगिकधर्मासम्भवात् । यदा त्वेकां मध्यमामगुलिमधिकृत्यानामिकायां ह्रस्वत्वमपरां कनिष्ठाङ्गुलिमपेक्ष्य च दीर्घत्वं तदा न विरोधलेशगन्धोऽपि। एतेन 'नैकस्मिन्नसम्भवात्' (ब्र.सू. २/२/३३) इति बादरायणवचनमपास्तम् निमित्तभेदेनैकत्र प्रतीयमानयोः सप्रतियोगिकभावयोरपह्नवस्य नियुक्तिकत्वात्। एतेन 'यदि भावानामुभयात्मकत्वं स्यात्तदा स्वरूपेणैव घटश्चाऽघटश्च स्यादिति भासर्वज्ञवचनं प्रत्युक्तम् निमित्तभेदाऽभ्युपगमे दोषानवतारात् । एतत्तत्त्वमग्रे स्फुटीभविष्यति।
सप्रतियोगिकभावाविरोधभिन्ननिमित्तकत्वयोर्व्याप्तिप्रतिपादनार्थं दृष्टान्तः प्रदर्शयितुमर्हति, तस्य व्याप्तिदर्शनाश्रयत्वात। तदुक्तं प्रमाणमीमांसायां 'स व्याप्तिदर्शनभूमिः' (प्र.मी. १/२/२०) इति। अतः तमाह- सत्त्वासत्त्ववदिति। एकस्मिन्नेव सत्त्वासत्त्वयोर्यथा निमित्तभेदेन न विरोधस्तथैवैकस्मिन्नेव धर्मिण्यणुत्व-महत्त्वयोरपि निमित्तभेदेन समावेशे न विरोध इति भावः । 'अयमितोऽणुः इतश्च महान्' इति सार्वजनीनप्रतीतिं प्रतीत्यैकत्रैव भिन्नापेक्षयोरणुत्व-महत्त्वयोः सिद्धेः। एतेन तज्ज्ञानाऽप्रमात्वस्यैवापाद्यत्वादिति निरस्तम अस्खलदवृत्तित्वात् बाधकप्रमाणाभावाच्च ।
इस आशंका का ग्रंथकार २९वीं गाथा से परिहार करते हैं।
गाथार्थ :- भिन्न निमित्त होने से अणुत्व-महत्त्व आदि धर्मों का एक धर्म में रहने में कोई विरोध नहीं है। निमित्त के भी व्यंजकघटक आदि अनेक प्रकार होते हैं।२९।
* निमित्त के भेद से विरोध का परिहार * विवरणार्थ :- पूर्वोक्त शंका का समाधान यह है कि विलक्षण प्रतीत्यभावों में परस्पर विरोध ही नहीं है, क्योंकि उनके निमित्त भिन्न भिन्न होते हैं। अणुत्व-महत्त्व का एक धर्मी में समावेश करने पर विरोध तब उपस्थित होता जब अणुत्व-महत्त्व का निमित्त एक ही होता, भिन्न न होता, क्योंकि बिना निमित्तभेद के सापेक्षधर्मों का भी एक धर्मी में समावेश होना असंभव है। मगर स्याद्वादी निमित्तभेद से सापेक्ष धर्मों का एक धर्मी में समावेश करते हैं। यहाँ विवरणकार अनुमानप्रयोग बताते हैं कि - 'अणुत्व-महत्त्व आदि धर्म परस्पर विरुद्ध नहीं है, क्योंकि उनका निमित्त भिन्न हैं जैसे कि सत्त्व और असत्त्व | जहाँ जहाँ भिन्ननिमित्तकत्व रहता है वहाँ विरोध नहीं रहता है - यह नियम तो लोकव्यवहार से भी सिद्ध है। जैसे कि रामचंद्रजी दशरथ के पुत्र हैं और लवण-अंकुश के पिताजी हैं - इस वाक्य से रामचंद्रजी में दशरथ की अपेक्षा पुत्रत्व और लवण-अंकुश की अपेक्षा पितृत्व की सब लोगों को अबाधित प्रतीति होती है। जो बात प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध हो उसमें विरोध कैसे? हाथ कंगन को आरसी क्या? प्रस्तुत में विवरणकार ने सत्त्व और असत्त्व का उदाहरण दिया है कि जैसे स्वरूप की अपेक्षा वस्तु सत् होती है और पररूप की अपेक्षा से असत् होती है - इस प्रतीति से स्वरूप और पररूप की, जो भिन्न निमित्त हैं, अपेक्षा वस्तु में सत्त्व और असत्त्व का अविरोध सिद्ध होता है ठीक वैसे ही 'आँवला आम के फल की अपेक्षा छोटा है और बेर के तुच्छ फल की अपेक्षा बडा है' इस प्रतीति से निमित्तभेद से छोटापन और बडापन एक ही आँवले में सिद्ध होता है। इसमें कोई विरोध नहीं है।
* द्रष्टांत और दार्टान्तिक में वैषम्यता की शंका * शंका :- ननु. इति । आपने अणुत्व-महत्त्व आदि प्रतीत्यभावों में सत्त्वासत्त्व धर्म की तरह भिन्ननिमित्तकत्व का जो प्रतिपादन १ भिन्ननिमित्तत्वतो न च तेषां हंदि भण्यते विरोधः । व्यञ्जकघटकादिकं भवति निमित्तमपीह चित्रम् ।।२९ ।। २ दृश्यतां १२९ तमे पुटे।