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________________ १२४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २८ ० प्रतीत्यसत्यभाषालक्षणप्रकाशनम् ० सप्रतियोगिकपदार्थानां दर्शिनी भाषा यथा एकं फलादि फलान्तरापेक्षयाऽणु महच्चेति। एवमनामिका कनिष्ठापेक्षया दीर्घा एतेन तद्वत्ताबुद्धिं प्रति तदभाव-तदभावव्याप्यवत्ताबुद्धेः प्रतिबन्धकत्वमिति नैयायिकनियमः प्रत्युक्तः तद्वत्ताबुद्धित्वस्याऽतिरिक्तवृत्तितया प्रतिबध्यतानवच्छेदकत्वात् तदभाववत्ताबुद्धौ सत्यामपि सप्रतियोगिकतद्वत्ताबुर्तरुत्पादेन व्यभिचाराच्च । न च यदवच्छेदेन तदभावतदभावव्याप्यवत्ताबुद्धिस्तदवच्छेदेन तद्वत्ताबुद्धेः प्रतिबध्यत्वाभ्युपगमान्न दोष इति वाच्यम् सप्रतियोगिकव्याप्यवृत्तिसत्त्वाऽसत्त्वादिधर्मस्थले व्यभिचारात्। अतो निष्प्रतियोगिकतद्वत्ताबुद्धित्वस्यैव प्रतिबध्यातावच्छेदकत्वाभ्युपगमस्य न्याय्यत्वात्। न च गौरवं, प्रमाणप्रवृत्तिसमये सिद्ध्यसिद्धिपराहतत्वेन फलमुखगौरवस्याऽदोषत्वात्, प्रमाणवतः तस्य न्याय्यत्वादिति दिक् । एकप्रतिसन्धानाऽगोचराणामिति एकनिराकाङ्क्षज्ञानाविषयाणामिति। तेनैकसाकाङ्क्षज्ञानविषयत्वेऽपि न क्षतिः । सप्रतियोगिकपदार्थानामिति सापेक्षपदार्थानामित्यर्थः। भाषेति अस्यानन्तरं भण्यते प्रतीत्यभाषेति गम्यम् । श्रीमलयगिरिचरणैस्तु 'प्रतीत्य आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्या प्रतीत्यसत्या' (प्र.भा.प.सू. १६५ मलयवृत्तौ) इति व्याख्यातम् । चूर्णी तु- समयपतिट्टितरूवं परापेक्खं जधा अणामिगाए काणंगुलिं मज्झिमंगुलिं च प्रति दिग्घता ह्रस्सता य एवमादि पडुच्चसच्चं' (द.वै.अ. ७. नि. श्लो. १७५ अग. चू.) इत्युक्तम् । अतोऽपेक्षात्मकशाब्दबोधजनकशब्दत्वमस्या लक्षणमित्युन्नीयते। ___ फलादि-आम्रफलादि, फलान्तरापेक्षयाऽणु-बीजपूरकादिफलान्तरापेक्षयाऽणु, महच्च आमलकादिफलान्तरापेक्षयेति भावः । 'इत्यादि' इति। आदिपदात् - भाषायां पदाऽपेक्षयाऽनन्विताभिधानं, वाक्यापेक्षयाऽन्विताभिधानं, सङ्ग्रहनयापेक्षया केवलज्ञानदर्शनयोरनन्यत्वं व्यवहारापेक्षया चान्यत्वं, व्यवहारतो यत्र मिश्रत्वं तत्रैव निश्चयतोऽसत्यत्वं, कलत्रपदवाच्ये वेदोदयापेक्षया स्त्रीत्वं शाब्दव्यवहारापेक्षया च नपुंसकत्वं, जिनपूजायां स्वरूपतो हिंसात्वमनुबन्धतश्चाऽहिंसात्वं, द्रव्यार्थादेशेन घटादेरभिव्यक्तिः पर्यायार्थादेशेन चोत्पत्तिः, पार्श्वस्थादावुत्सर्गतोऽवंद्यत्वमपवादतश्च वंद्यत्वं, गुरुपदवाच्ये धर्म्यपेक्षयैकत्वं ज्ञानादिधर्मविवक्षायां बहुत्वं, भ्रमे धन॑शे प्रमात्वं धर्मांशे चाऽप्रमात्वं, दण्डादौ द्रव्यत्वेनाऽन्यथासिद्धत्वं दण्डत्वादिना चाऽनन्यथासिद्धत्वमित्याद्युदाहरणानां ग्रहणम् | सुनय-निक्षेप-सप्तभङ्ग्यादिवचनानां व्यवहारनयमतेन प्रतीत्यसत्यत्वबोधनार्थं "ऊह्यमि'तिपदप्रयोगः। यथा चैतत्तत्त्वं तथा वक्ष्याम्यग्रे मा त्वरिष्ठाः | विलक्षण प्रतीत्यभावों को बताती है वह भाषा प्रतीत्यसत्य भाषा कही जाती है। यह बात द्रष्टांत से स्पष्ट हो जायेगी। देखिये, फलादि कोई चीज एक वस्तु की अपेक्षा छोटी होती है और अन्य वस्तु की अपेक्षा बडी होती है। जैसे की आम्रफल की अपेक्षा आँवला छोटा है फिर भी वह बेर-घुघची आदि फल की अपेक्षा तो बडा ही होता है। यदि सिर्फ इतना ही कहा जाय कि - "आँवला छोटा और बड़ा है" तब इस वाक्य से किसी श्रोता को निराकांक्ष शाब्दबोध होगा ही नहीं, क्योंकि छोटापन और बडापन परस्पर विरोधी धर्म हैं, जो निमित्तविशेष के प्रदर्शन के बिना एक धर्मिविशेष्यक एक ज्ञान के विषय नहीं होते हैं। छोटापन और बडापन रूप विलक्षण प्रतीत्यभाव के निमित्तान्तर का प्रदर्शन किये बिना एक ही विषयवस्तु में निराकांक्ष ज्ञान कथमपि नहीं हो सकता है। मगर जब वक्ता उक्त विलक्षण प्रतीत्यभावों के निमित्त अपेक्षा का प्रदर्शन कराता है कि 'आँवला आम्रफल की अपेक्षा से छोटा है और बेर-घुघची आदि फल की अपेक्षा से बड़ा है' तब आँवले में छोटापन और बडापन का विरोध दूर हो जाता है। तुरंत ही श्रोता को आँवले में भिन्न निमित्त सापेक्ष छोटापन और बडापन का निराकांक्ष शाब्दबोध हो जाता है। अतः निमित्तभेद का प्रदर्शन कर के विलक्षण प्रतीत्यभावों के विरोध का परिहार कर के उन विलक्षण प्रतीत्यभावों को बतानेवाली भाषा प्रतीत्यसत्य भाषा कही जाती है। सापेक्ष भावविषयक होने से वह भाषा प्रतीत्यसत्य भाषा कही जाती है। एवं. इति । विवरणकार प्रतीत्यसत्य भाषा के स्वरूप को और स्पष्ट करने के लिए दूसरा दृष्टांत बताते हैं। सुनिये "अनामिका अंगुली (जिससे पूजा की जाती है) मध्यमा अंगुली से छोटी है और कनिष्ठा अंगुली (पाँचवीं अंगुली) से बडी है" यह भाषा भी प्रतीत्यभाषा है, क्योंकि अनामिका अंगुली में छोटेपन और बडेपन की निमित्तभूत मध्यमा और कनिष्ठा अंगुली का प्रदर्शन कर के
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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