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से व्याख्यान किया है। उपाध्यायजी महाराज जनपदसत्यभाषा के निरूपण में नैयायिक एवं वैयाकरण को अपने युक्तिशस्त्र का निशान बनाते हैं तो स्थापनासत्य भाषा में प्रतिमालोपकों की धोति ढीली करते हैं। स्थापना सत्य एवं रूपसत्य की सूक्ष्म भेदरेखा खिंच कर (गा. २७) प्रतीत्यसत्यभाषा में अनेकान्तवाद को विजयी घोषित करते हैं (गा. २९)। भावसत्यभाषा में चित्ररूपवादस्थल का संक्षेप अवतार कर के नैयायिक का खोल उतार लिया है। दशवैकालिक प्रथम अध्ययन के अनुसार औपम्यसत्यभाषा पर विस्तार से श्रीमद्जी ने प्रकाश डाला है। मगर लगता है कि इस विषय का निरूपण करने के वक्त स्थानांगसूत्र की टीका विवरणकार के सामने उपस्थित नहीं होगी, अन्यथा स्थानांगवृत्ति में तद्देश-तद्दोष आदि के द्रव्यानुयोगविषयक उपलब्ध अनेकविध दृष्टान्तों में से, जो दशवैकालिवृत्ति आदि में भी अप्राप्य हैं, किसीका उल्लेख-उद्धरण अवश्य औपम्यसत्यभाषा के निरूपण में वे कर ही देते, जैसे दशवैकालिकटीका के प्रायः प्रत्येक निदर्शन का ग्रहण किया है। मगर श्रुतकेवलिसदृश महोपाध्यायजी की निपुण निगाह के बाहर यह रह गया हो यह नामुमकिन सा लगता है। विचार करने पर मुझे यह प्रतीत होता है कि उपदेशामृततङ्गिणी ग्रन्थ में, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है, उन दृष्टान्तों का सविस्तर निरूपण श्रीमद्जी ने किया होगा, क्योंकि श्रीमद्जी ने अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरण में 'आहरण-तद्देश-तद्दोषोपन्यासादिहेतुः विस्तरतस्तु मत्कृतोपदेशामृततरङ्गिणीतो बोध्यः' (अ.स.वि.पृ.३०९) ऐसा उल्लेख किया है। अस्तु ।
'एक ओर राम, दूसरी ओर गाम' इस उक्ति के अनुसार प्रस्तुत प्रकरण का महदंश प्रथम स्तबक ने ले लिया है जिसकी अपेक्षा अन्य स्तबकों का शरीर अल्पप्रमाण है। ३८ से ५५ गाथा तक द्वितीय स्तबक ने अपना स्थान प्राप्त किया है, जिसमें मृषाभाषा के दशविध विभाग का समर्थन एवं अन्यविध विभाग को भी मान्यता देना - ये दो विशेषता उल्लेखनीय है। ५६ से ६८ गाथापर्यन्त तृतीय स्तबक ने प्रतिष्ठा प्राप्त की है, जिसमें व्यवहारनय से मिश्रभाषा के लक्षण का प्रदर्शन एवं दशविधविभाग का समर्थन नव्यन्याय की गूढ परिभाषा में किया गया है। धर्मांश में ही भ्रम-प्रमाउभयजनकवचनत्व को मिश्रभाषा का लक्षण बनाना, जीवमिश्रित एवं अनन्तमिश्रित भाषा में आंशिक सत्यत्व की स्थापना, परित्तमिश्र में चूर्णिकार के तात्पर्य को खोलना, मृषाभाषा में लक्षणा से सत्यत्व का अस्वीकार... इत्यादि विषय तृतीय स्तबक के आभूषण हैं। ६९ गाथा से ८६ गाथा तक १८ श्लोकप्रमाण चतुर्थ स्तबक में असत्यामृषा भाषा के लक्षण तथा आमन्त्रणी आदि १२ भेद, त्रिविध श्रुतविषयक भाषा एवं द्विविध चारित्रविषयक भावभाषा का निरूपण उपलब्ध है। असत्यामृषात्व के हेतुओं का प्रदर्शन, कुपित तिर्यंच भाषा में व्यवहारनय से मृषात्व का निराकरण, 'यथासुखं मा प्रतिबन्धं कुर्याः' भाषा में इच्छानुलोमत्व का उपपादन, अनभिगृहीतभाषाफलाविष्करण, अनुपयुक्तसमकितिभाषा में भावभाषात्व का समर्थन आदि विषय ध्यातव्य है।
इस प्रकरण के महत्त्वपूर्ण विषय का सुबोध प्रतिपादन पञ्चम स्तबक में, जो ८७ से १०२ गाथापर्यन्त फैला हुआ है, उपलब्ध होता है। द्वादशांग गणिपिटक से बालमुनि मनक के अनुग्रहार्थ निर्मूढ दशवैकालिकसूत्र के वाक्यशुद्धिनामक सप्तमअध्ययन का, जो कि सत्यप्रवाद पूर्व से निर्मूढ है, आधार लेकर 'संयत सत्य एवं असत्यमृषा भाषा को कब, कैसे, कहाँ बोले?' इस विषय का हृदयंगम वर्णन किया गया है। सत्य वाणी को भी कब, कैसे, कहाँ नहीं बोलना? औत्सर्गिक, आपवादिक, वक्तव्य, अवक्तव्य, सावद्य, निरवद्य आदि वचन कौन कौन से हैं? इसका रोचक शैली में तलस्पर्शी निरूपण किया गया है। यह स्तबक प्रत्येक साधु, साध्वी के लिए अत्यन्त उपयोगी एवं आवश्यक होने की वजह प्रकरणकार न्यायाचार्य, न्यायविशारद ने लेखनी की कर्कशता को यहाँ तिलांजलि दे दी है, जिसकी वजह सामान्य संस्कृतभाषाज्ञान होने पर कोई भी इस विषय के आस्वाद से लाभान्वित हो सके। कौन कौन वचन विराधक, प्रवचनअपभ्राजनाकारक, लघुतादोषजनक, मिथ्यात्वानुमोदक, असंयतपोषक, अधिकरणादिदोषसम्पादक, ममत्वशंकादिकारक सावद्य एवं जिनाज्ञाभंजक होते हैं? इस विषय का जो निरूपण यहाँ उपलब्ध है उसके अनुसार प्रत्येक साधुसाध्वी जीवन बनाये तो आज जिनशासन की शान में चार चाँद लग जाय एवं इस मर्त्यलोक में ही स्वर्गलोक का निर्माण हो जाय - यह निःसन्देह कहा जा सकता है।
स्वोपज्ञविवरण के स्पष्टीकरण की आवश्यकता यद्यपि स्याद्वादकल्पलता, स्याद्वादरहस्य, नयोपदेश, आत्मख्याति आदि ग्रन्थों की भाँति प्रकृत प्रकरण के स्वोपज्ञविवरण की प्रत्येक पंक्ति नव्यन्याय की कर्कश परिभाषा के गहन प्रयोग से जटिल तो नहीं है तथापि श्रीमदजी की रचनापद्धति ही ऐसी है कि वे शब्द से जितना कहते हैं उससे बहुत अधिक शब्द में ही गर्भित रखते हैं, जिसका ज्ञान आसानी से नहीं हो सकता है। दूसरी
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