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________________ स्थापनासत्यत्वप्रतिपादकसूत्राणां त्रैविध्यप्रदर्शनम् * एतेनाऽचेतनायां प्रतिमायामर्हदादिपदं प्रतिपादयतामजीवे जीवसंज्ञेति वदतामपहृतं सर्वस्वम्, एतेन=स्थापनायामपि निक्षेपानुशासनसद्भावप्रतिपादनेनेत्यर्थ । अस्य चापहृतं सर्वस्वमित्यत्राऽन्वयः । ' स्थापनासत्यत्वप्रतिपादकसूत्रोन्मूलनेने 'ति । स्थापनासत्यत्वप्रतिपादकसूत्राणि त्रिविधानि स्थापनायां शब्दशक्तिविधायकानि, स्थापनास्वरूपप्रतिपादकानि स्थापनायां प्रवर्तमानानि च । तत्र स्थापनायां शब्दशक्तिविधायकानि सूत्राणि - 'णामं ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य । एस खलु णिक्खेवो दसगस्स छव्विहो होइ' ।। (द. नि. गा. ८/९) 'णामं ठवणा दविए, माउयपयसंगहेक्कए चेव । पज्जवभावे य तहा सत्तेऐ एक्कगा होंति' ।। ( ) णामं ठवणा दविए, ओहे भव भवेय भोगे य । संजम जस कित्ती जीवियं च भण्णत्ती दसहा' ।। ( ) 'नामं ठवणा दविए खेत्तद्धा उठ्ठ उवरती वसही। संजमप्पग्गह जोहे, अचल गणण संघणा भावे' ।। ( ) । "नामं ठवणा दविएत्ति एस दव्वट्ठियस्स निक्खेवो" । (सं. तर्क १/६) इत्यादीनि । १११ स्थापनास्वरूपप्रतिपादकानि च "जं पुण तयत्थसुन्नं, तदभिप्पाएण तारिसागारं । कीरइ व निरागारं इत्तरमियरं व साठवणा ।। (वि. आ. भा. २६) " यत्तु तदर्थवियुक्तं, तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि । लेप्यादिकर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालञ्च ।। ( ) इत्यादीनि । स्थापनायां प्रवर्तमानानि च प्रदर्श्यन्ते । तथाहि महानिशीथसूत्रे - "गोयमा ! पमायं पडुच्च तहारूवे समणे वा माहणे वा जो जिणघरं न गच्छेज्जा तओ छटुं अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेज्जा ।। (म. नि. अ. ७) इत्युक्तम् । द्रौपद्यधिकारे ज्ञाताधर्मकथांगे"... मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ । (ज्ञा. ) इत्युक्तम् । राजप्रश्नीये सूर्याभदेवाधिकारे" धूवं दाऊण जिणवराणं अट्ठसयविसुद्धिगंथजुत्तेहिं अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं शब्द का प्रयोग हुआ है। यहाँ और शब्द का अर्थ एक नहीं है, अलग अलग है। फिर भी आस-पास के शब्दों से, प्रकरण से प्रस्तुत में इस शब्द का अर्थ क्या है? वह पता चल जाता है। प्रस्तुत में प्रथम वाक्य में और शब्द का अर्थ समुच्चय = संग्रह है, दूसरे वाक्य में और शब्द का अर्थ अन्य है, तीसरे वाक्य में और शब्द का अधिकरूप क्रियाविशेषण अर्थ है। इस तरह जिन आदि शब्द के अनेक अर्थ होने पर भी, किस जगह उसका क्या अर्थ होता है ? यह प्रकरणादि के बल पर मालुम होता है। अतः अव्यवस्था संशय आदि दोषों का अवकाश नहीं है। * स्थापनासत्यभाषा का लक्षण * उपर्युक्त विचारविमर्श करने से स्थापनासत्य भाषा का यह लक्षण प्राप्त होता है कि अनेक बार भावनिक्षेप में प्रवर्तमान शब्द भी निक्षेप अनुशासन से नियन्त्रित मर्यादित शक्तिवाले होने से प्रकरणादि के बल से जब स्थापना के बोधक होते हैं तब वे शब्द स्थापनासत्य भाषास्वरूप हैं। - शंका :- अचेतन प्रतिमा में अरिहंत आदि शब्दों का प्रयोग ठीक उसी तरह मिथ्या है जैसे कि अजीव में जीव शब्द का प्रयोग । आशय यह है कि जीव पद की शक्ति जीवरूप अर्थ में होती है, न कि अजीव में क्योंकि अजीव में जीवपद का प्रवृत्तिनिमित्त= शक्यतावच्छेदक नहीं है। प्रवृत्तिनिमित्त के बिना अजीव में जीवशब्द का प्रयोग जैसे असत्य होता है। वैसे ही अरिहंत पद का अरिहंत की प्रतिमा में प्रयोग मिथ्या होता है। अरिहंत शब्द परमात्मा का वाचक होता है जब कि प्रतिमा तो आत्मस्वरूप भी नहीं है, तो परमात्मस्वरूप की तो बात ही कहाँ प्रतिमा तो जड होती है। अतः अरिहंतशब्द का जड प्रतिमा में प्रयोग मिथ्या है । * प्रतिमा में अरिहंतपद प्रयोग नितांत सत्य है समाधान :- एतेन इति । जाकी रही जैसी भावना, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी प्रतिमा को आप जड कहते हैं, यह बात आपकी जडता का ही दिग्दर्शन कराती है। आपके वक्तव्य का निराश तो हमने पूर्व में जो बताया था कि - 'निक्षेप अनुशासन से
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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