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१०२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २३
० जनपदभाषायाः सत्यत्व समर्थनम् ० जा जणवयसंकेया, अत्थं लोगस्स पत्तियावेई। एसा जणवयसच्चा पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं ।।२३।।
या जनपदसकेताल्लोकस्याऽर्थं प्रत्याययति एषा भाषा धीरपुरुषैः तीर्थकरगणधरैः जनपदसत्या प्रज्ञप्ता। तथा च 'जनपदसङ्केतमात्रप्रयुक्ताऽर्थप्रत्यायकत्वं' एतल्लक्षणम् । मात्रपदं अनादिसिद्धसङ्केतव्यवच्छेदार्थम्। अस्ति चाऽत्रेदं लक्षणं कोकणादिसङ्केतज्ञानादेव 'पिच्चादिपदात्पयः प्रभृतिप्रतीतेः ।
स्यान्मतम् अपभ्रंशे शक्त्यभावादबोधकत्वम्। यदि च ततोऽपि बोधस्तदा शक्तिभ्रमादेवेति। मैवम, ईश्वराऽसिद्धौ
प्रज्ञप्तेति। प्रज्ञापनावृत्तौ च मलयगिरिचरणैः "तं तं जनपदमधिकृत्येष्टार्थप्रतिपत्तिजनकतया, व्यवहारहेतुत्वात् सत्या जनपदस्त्ये"ति व्याख्यातम्। याकिनीमहत्तरासूनुना श्रीदशवैकालिकनियुक्तिं विवृण्वता-'जनपदसत्यं नाम नानादेशभाषारूपमप्यविप्रतिपत्त्या यदेकार्थप्रत्यायनव्यवहारसमर्थमिति, यथोदकार्थे कोकणादिषु, पयः पिच्चमुदकं नीरमित्यादि, अदुष्टविवक्षाहेतुत्वात्, नानाजनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वाद्, व्यवहारप्रवृत्तेः सत्यमेतदि'त्युक्तम् । अगस्त्यसिंहसूरिभिरपि तच्चूर्णी-"भिण्णदेसिभासेसु जणवदेसु एगम्मि अत्थे संदेण-वंजण-कुसण-जेमणाति भिण्णमत्थपच्चायणसमत्थमविप्पडिवत्तिरूवेणेति जणवदसच्चं (दश.नि.चूर्णि-७/१७५) जिनदासगणिकृतचूर्णी तु-"तत्थ जणवयसच्चं नाम जहा एगम्मि चेव अभिधेये अत्थे अणेयाणं जणवयाणं विप्पडिवत्ती भवति, ण च तं असच्चं भवति, तं जहा पुव्वदेसयाणं पुग्गलि ओदणो भण्णइ, लाड-मरहट्ठाणं कूरो, द्रविडाणां चोरो, अन्ध्राणां कनायुं, एवमादि जणवयसच्चं भवति।" इत्युक्तम्। ___ अत्र-जनपदसत्यायाम् । कोकणादिसङ्केतज्ञानादेवेति। एवकारेणाऽऽनुशासनिकसङ्केतज्ञानव्यवच्छेदः कृतः । तदुक्तं स्याद्वादरत्नाकरे-"एकस्यापि हि शब्दस्य देशादिभेदेन प्रतिनियतः सङ्केतोऽनुभूयते। यथा गूर्जरादौ चोर
अब सत्य भाषा के दश भेद में से प्रथमभेद - जनपदसत्य भाषा के निरूपण का अवसर प्राप्त है। अतः सर्व प्रथम जनपदसत्यभाषा के लक्षण को प्रकरणकार २३वी गाथा से बताते हैं।
गाथार्थ :- जो भाषा जनपदसंकेत से लोक को अर्थ का बोध कराती हो वह जनपदसत्य भाषा है - ऐसा धीरपुरुषों ने प्रतिपादन किया है।२३।
जनपद सत्य भाषा -१ विवरणार्थ :- जनपद का अर्थ है देश। भिन्न भिन्न देशों में भिन्न भिन्न शब्दों से भिन्न भिन्न अर्थ का संकेत होता है। अतः तत्तत देश के संकेत से लोगों को जो अर्थबोध = शाब्दबोध जिन शब्दों से होता है, वे शब्द जनपद सत्य भाषा हैं - ऐसा तीर्थंकर, गणधर भगवंतों ने, जो कि पुरुषों में धीर है, प्रतिपादन किया है। तीर्थंकर-गणधरभगवंतों के वचन से जनपद सत्य भाषा का लक्षण प्राप्त होता है - "सिर्फ जनपद (देश) के संकेत से जो अर्थ का बोध कराये ऐसी भाषा" । यहाँ लक्षण में 'मात्र' अर्थात् सिर्फ पद का निवेश अनादिसिद्ध संकेत का व्यवच्छेद करने के लिए किया गया है। जो भाषा-शब्द अनादिकालीन संकेत से अर्थात् अनादिकाल से प्रवृत्त संकेत से अर्थबोध कराती हो वह भाषा जनपद सत्य भाषा नहीं है - ऐसा यहाँ अभिप्रेत है। जनपदभाषा का लक्षण जनपदसत्यभाषा में रहता ही है जैसे कि - कोंकण देश में पिच्च पद का संकेत जल में होने से कोंकण देशवासिओं को कोंकणदेश में किये गये इस संकेत के बल से जल पदार्थ का बोध पिच्च पद से होता है। अतः पिच्च आदि पद जनपद सत्य भाषा है।
* अपभ्रंश में शक्ति नहीं है - नैयायिक * नैयायिक :- 'स्यान्मतं.' इति । पिच्च आदि पद संस्कृत नहीं है, किन्तु असंस्कृत है, अपभ्रंश है। अपभ्रंश शब्द से बोध कैसे हो सकता है? क्योंकि अपभ्रंश पद में अर्थबोध कराने कि शक्ति होती ही नहीं है। शाब्दबोध स्थल में यह एक नियम है कि - जिस
१ या जनपदसंकेतादर्थ लोकस्य प्रत्याययति। एषा जनपदसत्या प्रज्ञप्ता धीरपुरुषैः ।।२३ ।। २ अत्र 'सैषा' इति मुद्रितप्रतौ पाठः ।
१ इस वचन से सिद्ध होता है कि ग्रंथकार के काल में कोंकणदेश में 'पिच्च' शब्द से पानी का बोध होता था। मगर आज-कल कोंकणदेश में 'पिच्च' पद से 'जल' का बोध होता है या नहीं? यह खोज का विषय है।