________________
आपश्री ना अनुपम उपकारो ने क्यारेय भूली शकाय तेम नथी बस ! मूकभावे हृदय आपना परत्वे ढली पड़े छे. आपश्री नो अनुपम अजोड़ अध्यात्मप्रकर्ष हुँ क्यारे पामीश?"
(४. टीका) अल्पजीवी हिन्दी गुजराती पुस्तकों के प्रकाशन के इस वर्तमान युग में शास्त्रों पर संस्कृत टीका रचने की इच्छा जागृत होना भी दुर्लभ है। टीकाकार का यह प्रयास सराहनीय एवं अभिनन्दनीय तथा अनुकरणीय है।
टीका की गरिमा यह टीका भी कैसी अद्भूत ! विद्वतापूर्ण एवं प्रौढभाषायुक्त। स्वोपज्ञ टीका के गुप्त भावों को अतिसूक्ष्मतापूर्वक प्रकट करने में यह टीका दिनकरस्वरूप है। वाचक इसका पठन करेंगे तब ज्ञात होगा कि स्वोपज्ञ टीका के लगभग प्रत्येक अंश को लेकर के टीकाकार ने किस प्रकार सुन्दर रीति से विशिष्टक्षयोपशमसाध्य स्पष्टीकरण किया है। उसमें भी स्वोपज्ञ टीकान्तर्गत 'दिक' 'ध्येयम्' 'अन्यत्र' 'अन्ये' आदि शब्दों के स्पष्टीकरण से तो टीकाकार ने कमाल ही कर दिया है। इन स्पष्टीकरणों से टीका में चार चाँद लग गए हैं। उसी तरह "नन्वाशय" की तथा स्वोपज्ञ टीका के अनेकस्थलों की अवतरणिका बहुत ही सुंदर है।
इस टीका को देखते हुए यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि यह टीका हकीकत में 'आर्षटीका' की झलक सजाए है। जिनशासन में विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में हुए आचार्य मलयगिरिसूरिजी म. टीकाकार के रूप में सुप्रसिद्ध हैं। उनकी टीका अतिविशद, पदार्थ को आत्मसात् करनेवाली एवं विशिष्ट ज्ञानप्रद होती है। प्रस्तुत टीका भी उन सुप्रसिद्ध टीकाओं का प्रतिबिम्ब है। तथा टीकाकार ने उपाध्यायजी की अद्भूत शैली का अनुसरण कर के इस टीका को विद्वद्भोग्य भी बनाई है।
"टीका के कुछ विशिष्ट स्थल' इस टीका की गरिमा के दिग्दर्शन हेतु एवं उपर्युक्त कथन की पुष्टि हेतु टीका के कुछ स्थलों को प्रकट करता हूँ। देखिए -
(१) किसी विषय के बारे में विरोध का उद्भावन कर के अनेक ग्रन्थों की सहायता से, एवं अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से उसका हल करना इस टीका का स्वभाव सा है। जैसे गाथा नं. ३ की टीका में स्वोपज्ञ टीका के एक परमाणु के स्पर्श के बारे में "मृदुशीतौ मृदूष्णौ वा" इत्यादि से जो कहा है उसमें व्याख्याप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापनाटीप्पण, तत्त्वार्थटीका, प्रज्ञापना की मलयगिरिसूरिजीकृत टीका के आधार से विरोधोद्भावन कर के प. पू. सिद्धान्तदिवाकर आचार्यदेव श्रीजयघोषसूरीश्वरजी की सहायता से बन्धशतक चूर्णि के आधार पर उसका समाधान किया है।
(२) टीका में, स्वोपज्ञटीका के अनेक विशिष्ट पदों की गहराई दृष्टिगोचर होती है। जैसे गाथा नं. ४ की स्वोपज्ञ टीका में भाषाद्रव्य के ९ विशेषण दिए हैं। उनमें आठवाँ विशेषण "तान्यप्यानुपूर्वीकलितानि आनुपूर्वी नाम ग्रहणापेक्षया यथासन्नत्वं तया कलितानि, न पुनरनीदृशानि ।। ८ ।।
इस पाठ के 'ग्रहणापेक्षया यथासन्नत्वं' की टीका अतिविशदरूप से कर के प्रश्नोभावन के बाद निष्कर्ष लिखा है - "अतो ग्रहणापेक्षया यथासन्नत्वं नाम ग्रहणभाषाद्रव्यापेक्षया क्रमिकत्वम्। तच्च प्रदर्शितरीत्या ग्रहणभाषाद्रव्यघट की भूतपरमाणुगताल्पबहुसंख्याकत्वापेक्षयैव कोटिमाटीकते।"
इस चर्चा का सार इस प्रकार है। जीव अपने योग (वीर्य) के अनुसार आनुपूर्वीयुक्त (ग्रहण की अपेक्षा से क्रमिकता वाले) भाषाद्रव्यों का ग्रहण करता है। मानों कि एक जीव भाषा द्रव्यों को तीव्र योग से ग्रहण करता है। तब असत् कल्पना से ३०,००० परमाणुनिष्पन्न द्रव्यों के स्कंध से लेकर ३०००१,३०००२, ३०००३, यावत् ४०,००० तक ग्रहण करता है। ३०,००० से लेकर ४०,००० के बीच के स्कन्ध को नहीं छोडेगा एवं ५०,००० या १०,००० आदि परमाणु से निष्पन्न स्कंधों को भी ग्रहण नहीं करेगा।
मूल ग्रंथ का यह तात्पर्यार्थ निकालना बुद्धि की तीक्ष्णता एवं टीका की गहनता सूचित करती है। (३) अन्य दिग्गज विद्वानों के मतों को बराबर समझ कर उनका विशदरीति से तर्कपूर्णनिरास किया है। जैसे गाथा नं. २३ की टीका में शब्दशक्ति को लेकर वर्धमानोपाध्याय के 'अन्वीक्षानयतत्त्वबोध', न्यायमञ्जरीकार, गदाधर के व्युत्पत्तिवाद, वाक्यपदीय, नृसिंहशास्त्री की मुक्तावलीप्रभा, मुक्तावलीदिनकरी एवं वृषभदेव के मतों का तर्कपूर्ण निरसन दृष्टिगोचर होता है।
(viii)