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________________ * 'द्रव्यं रूपवत्' इतिवाक्यविचार: * ___हन्दीत्युपदर्शने, निश्चयतो द्विविधैव भाषा सत्या मृषेति, सत्यामृषाभाषायास्तात्पर्यबाधेनाऽसत्यायामेवान्तर्भावात् अबाधिततात्पर्यस्यैव शब्दस्य सत्यत्वात्, अन्यथा 'द्रव्यं रूपवदि'त्यस्य देश-कात्य॑तात्पर्यभेदेन प्रामाण्याऽप्रामाण्यद्वैविध्यानुपपत्तेरित्यन्यत्र विस्तरः। शब्दोऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थे । परिभाषाया अपर्यनुयोज्यत्वात्तदेव शरणं नान्यत्। 'व्यवहार एवे'त्यनेन निश्चयव्यवच्छेदः कृतः। परिभाषा परिभाषाकेच्छानुगामिनी न तु वस्तुस्वरूपानुगामिनी। निश्चयस्तु वस्तुस्वरूपानुयायी न पुरुषाभिप्रायानुपाती। ततः परिभाषाया व्यवहारगोचरत्वं न तु निश्चयविषयत्वमित्याशयः। निश्चयतो = निश्चयनयमवलम्ब्य । ननु निश्चयनये सत्यामृषाभाषा किं नास्तीत्याशङ्कायामाह सत्यामृषाभाषाया इति। तस्या असत्यायामन्तभाव एव हेतुमाह- 'अबाधिततात्पर्यस्यैवेति । एवकारेण देशतोऽबाधितार्थस्य शब्दस्य सत्यत्वव्यवच्छेदः कृतः। विपक्षबाधकतर्कमाह- "अन्यथेति" | अबाधिततात्पर्यस्य शब्दस्य सत्यत्वानभ्युपगमे इत्यर्थः । 'द्रव्यं रूपवत' इति । इदं वाक्यं देशतात्पर्ये प्रमाणं कात्य॑तात्पर्ये चाऽप्रमाणम् । अयं भावः द्रव्यत्वसामानाधिकरण्येन रूपवत्तायाः तात्पर्ये सत्यत्वं द्रव्यत्ववति पुद्गले रूपस्य सत्त्वेन तात्पर्याऽबाधात्, द्रव्यत्वावच्छेदेन रूपवत्तायास्तात्पर्ये चाऽसत्यत्वं द्रव्यत्ववति धर्माधर्माकाशादौ रूपस्याऽसत्त्वेन तात्पर्यबाधात्। परिभाषा प्रश्नाह नहीं है समाधान :- यह व्यवहारनय की निजी परिभाषा है। शास्त्रकार महर्षि वस्तु में जो असाधारण संकेत करते हैं, वह परिभाषा है। शास्त्रकारों ने ऐसी परिभाषा क्यों की? यह प्रश्न उचित नहीं है। अतः यहाँ सभी समस्याओं का समाधान यह है कि - "व्यवहारनय की ऐसी परिभाषा है।" यही अंतिम शरण है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि - परिभाषा व्यवहार में ही होती है, निश्चय में नहीं। शंका :- निश्चय नय में यदि कोई परिभाषा नहीं होती है, तब निश्चयनय से भाषा के भेद कितने हैं? * भाषा के दो भेद हैं - निश्चय नय * समाधान :- 'निश्चयतो' इति । निश्चयनय की दृष्टि से विचार किया जाय तब भाषा के दो भेद होते हैं, सत्यभाषा और असत्यभाषा । यहाँ यह शंका कि - 'यदि निश्चयनय से भाषा के दो भेद हैं तब व्यवहारनयसंमत मिश्रभाषा निश्चयनय की दृष्टि से क्या असत् है?' - करने की कुछ आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मिश्रभाषा का तात्पर्य बाधित होने से मिश्रभाषा सत्यामृषाभाषा का निश्चयनय की दृष्टि से असत्यभाषा में समावेश होता है। इसका कारण यह है कि - निश्चयनय के अभिप्राय से जिस शब्द का तात्पर्य बाधित न हो वह भाषा सत्य है। अर्थात् वक्ता जिस अभिप्राय से जिस शब्द का प्रयोग करता है, वह अभिप्राय यदि बाधित न हो तब वह भाषा सत्यभाषा है। निश्चयनय की दृष्टि सिर्फ शब्द के अर्थ में ही सीमित नहीं है, मगर शब्द के तात्पर्य तक दूर फैली हुई है। यह बात युक्तिसंगत भी है, क्योंकि 'शब्द का अर्थ अबाधित हो वह सत्यभाषा और शब्द का अर्थ बाधित हो वह असत्यभाषा' - सिर्फ ऐसा सत्य और असत्य भाषा का लक्षण बनाया जाय तब तो 'द्रव्यं रूपवत्' इस वाक्य में प्रामाण्य और अप्रामाण्य की देश और संपूर्ण तात्पर्य से अनुपपत्ति हो जायेगी। * द्रव्यं रूपवत्-वाक्यविचार * अन्यथा इति । आशय यह है कि - 'द्रव्यं रूपवत्' अर्थात् "द्रव्य रूपवाले हैं" यह वाक्य जब देश तात्पर्य से प्रयुक्त होता है तब वह प्रमाण होता है - सत्य होता है, क्योंकि द्रव्य के एक देशभूत पुद्गलद्रव्य में रूप होता है। जब कात्स्न्यतात्पर्य अर्थात् द्रव्यमात्र यानी सब द्रव्यों की अपेक्षा से 'द्रव्यं रूपवत्' वाक्य का प्रयोग होता है, तब वह वाक्य मृषा होता है अप्रमाण होता है, क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल, इन पाँच द्रव्यों में रूप नहीं रहता है। अतः 'द्रव्यं रूपवत्' यह एक ही वाक्य द्रव्य के एक देश में रूप का विधान करने पर सत्य-प्रमाण होता है और सर्व द्रव्य में=षद्रव्य में रूप का विधान करने पर असत्य-अप्रमाण होता है - यह स्याद्वाद के ज्ञाता के लिए सुपरिचित है। मगर 'जिस शब्द का अर्थ अबाधित हो वह भाषा सत्य है और बाधित हो वह भाषा असत्य है' - ऐसा सत्य और असत्यभाषा का लक्षण किया जाय तब उपर्युक्त वाक्य
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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