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________________ ७२ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. १६ त्वेनाऽपर्याप्तायाः पर्याप्तत्वं न वा तत्संशयविषयत्वेन पर्याप्ताया अपर्याप्तत्वमित्याद्यूह्यम् । अन्यतरव्यवहार एवावधारणमित्यपरे ||१६|| O अस्वरसबीजोपदर्शनम् O अनेनापर्याप्तभाषायामवक्तव्यत्वावधारणस्य प्रमात्मकस्य सम्भवेन कुतो न पर्याप्तत्वमिति कुचोद्यमपास्तम् अवक्तव्यत्वप्रकारकप्रमाविषयत्वस्य सत्त्वेऽपि निरुक्तान्यतरत्वप्रकारकप्रमाविषयत्वरूपस्यावधारणीयत्वस्य पर्याप्तभाषालक्षणस्याऽसत्त्वात्। तेनेति तादृशनिश्चयविषयतामनादृत्य तादृशप्रमाविषयत्वस्य विवक्षणेनेत्यर्थः । मिश्रभाषायां तादृशान्यतरत्व-प्रकारकनिश्चयविषयतायाः सत्त्वेऽपि तादृशप्रमाविषयत्वस्याऽसत्त्वान्न तस्याः पर्याप्तत्वं न वाऽव्याप्त्यतिव्याप्ती सत्यभाषायां श्रोतृसन्देहदशायां च तादृशनिश्चयविषयत्वाभावस्य सत्त्वेऽपि न तस्या अपर्याप्तत्वं तादृशप्रमाविषयत्वाभावस्याऽसत्त्वात् । न च श्रोतृसन्देहदशायां तादृशप्रमाविषयत्वस्याऽसत्त्वात् कथं न तत्राऽपर्याप्तत्वमिति वाच्यम् श्रोतुः सन्देहेऽपि वक्तुः सत्यत्वप्रकारकप्रमाया विषयत्वस्याऽबाधात्, अन्ततो गत्वा तादृशान्यतरत्वप्रकारककेवलज्ञानरूपप्रमाविषयत्वस्याऽप्रत्यूहाच्च न तत्राऽपर्याप्तत्वं न वाऽव्याप्त्यतिव्याप्ती । नन्वन्यतरस्य तद्भिन्नत्वे सति तद्भिन्नभिन्नरूपत्वेन भेदद्वयावच्छिन्नप्रतियोगिकभेदस्वरूपस्याऽन्यतरत्वस्य निरुक्तलक्षणघटकत्वे गौरवमिति चेत् ? मैवम्, गौरवं न स्वरूपसत्प्रतिबन्धकं नापि तत्संशयः प्रतिबन्धकः किन्तु तन्निर्णय एव प्रतिबन्धकः । प्रमाणप्रवृत्तिसमये च सिद्ध्यसिद्धिपराहतत्वेन फलमुखगौरवस्याऽदोषत्वात्, प्रमाणवतस्तस्य न्याय्यत्वात्, अन्यतरत्वस्याऽखण्डोपाधित्वमते गौरवानवकाशाच्चेत्यादिकं स्वयमूहनीयम् । अन्यमतमाह-"अन्यतरव्यवहार एवावधारणमिति । न च यत्र पर्याप्तभाषायां व्यवहार एव न जातस्तत्राऽव्याप्तिराशङ्कनीया । सत्याऽसत्यान्यतरत्वव्यवहारयोग्यत्वरूपस्याऽवधारणीयत्वस्य तत्राऽबाधात्। एतेनान्यतरव्यवहारपूर्वकाले पर्याप्ताया अपर्याप्तत्वप्रसङ्गो निलठितो द्रष्टव्यः । एवकारेण चास्मिन् मते तादृशान्यतरप्रमाया व्यवच्छेदः प्रतीयते। 'अपरे' इत्यनेनाऽस्वरसः प्रदर्शितः । अस्वरसबीजं चेदम् व्यवहारस्य व्यवहर्तव्यज्ञानाधीनत्वाद् भ्रमात्मकव्यवहर्तव्यज्ञानजन्यतदन्यतरभ्रान्तव्यवहारेऽपर्याप्तायाः पर्याप्तत्वप्रसङ्गनिवारणार्थं सत्यासत्यान्यतरयथार्थव्यवहारयोग्यत्वनिवेशापेक्षया लाघवात् 'तद्धेतोरस्तु किं तेने' तिन्यायेनाऽन्यतरप्रमाया अवधारणत्वं तद्विषयस्य चावधारणीयत्वं वक्तुमर्हतीत्याशयः । ।१६ | | अलग ही है। हम कहते हैं कि भाषा में सत्य-असत्यअन्यतरत्वप्रकारक प्रमाविषयता ही अभिलषित अवधारणीयत्व है और यदि इसका अभाव हो तब वह भाषा अनवधारिणी अपर्याप्त है। आशय यह है कि- "यह भाषा सत्य है" या "यह भाषा असत्य है" ऐसा जो प्रमात्मक निश्चय है उसका विषयभूत शब्द या वाक्य पर्याप्त भाषा है और उक्त प्रमात्मक निश्चय का जो वाक्य विषय न हो वह अपर्याप्तभाषास्वरूप है। ऐसा निर्वचन करने पर कोई अनिष्ट उपस्थित नहीं होता है। जो भाषा अपर्याप्त है अर्थात् मिश्रभाषा या अनुभयभाषा है वह "यह भाषा सत्य है" या "यह भाषा असत्य है" ऐसे भ्रमात्मक निश्चय का विषय होने पर भी अवधारणी=पर्याप्त भाषा नहीं है, क्योंकि वह भाषा "यह भाषा सत्य है" या "यह भाषा असत्य है" ऐसे प्रमात्मक निश्चय का विषय नहीं है। अतएव वह भाषा पर्याप्त नहीं है, किन्तु अपर्याप्त ही है। इस तरह वक्ता जब पर्याप्त भाषा को, जैसे कि सत्य भाषा को, बोलता है और अव्युत्पन्न श्रोता को "यह भाषा सत्य है या नहीं ?" ऐसा संशय होने पर भी वह भाषा अपर्याप्त न बनेगी, क्योंकि वह भाषा "यह भाषा सत्य ही है" इत्याकारक वक्ता के प्रमात्मक निश्चय का विषय होती है। उन भाषा में सत्यत्वप्रकारक प्रमाविषयता अबाधित ही है। इस तरह अवधारणीयत्व और अनावधारणीयत्व का समीचीन निरूपण करने पर कोई दोष नहीं आते हैं। इस विषय में अधिक विचार वाचक स्वयं करे यह सूचना देने के लिए विवरणकार ने 'इत्यादि ऊह्यं' ऐसा प्रयोग किया है। अन्य विद्वान मनीषियों का यह कहना है कि अन्यतर व्यवहार ही अवधारण है। अर्थात् जिस भाषा में 'यह सत्य है' या 'यह असत्य है' ऐसा व्यवहार हो वह भाषा पर्याप्त है और ऐसा व्यवहार जिसमें न हो वह भाषा अपर्याप्त है। अब पूर्वनिर्दिष्ट भाषा के विभाग का निश्चयनय और व्यवहारनय से ग्रंथकार १७वीं गाथा से विवेचन करते हैं ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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