SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरत चक्री की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् || भरतचक्री की कथा ।। जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में अर्धभरत क्षेत्र है। उसके दक्षिण में गंगा-सिन्धु नदी हैं। उस नदी के मध्य खण्ड में अवसर्पिणी काल में सुषमदुःषम नामक तीसरा आरा कल्पवृक्ष से युक्त होकर चलायमान था। वहाँ सातवें कुलकर नाभिराजा व उनकी रानी मरुदेवी हुई। आषाढ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी के निर्मल दिन युगादिदेव के जीव ने सर्वार्थसिद्ध विमान से च्युत होकर श्री मरुदेवी माता की सरोवर के समान कुक्षि में हंस के समान तीन ज्ञान से युक्त पवित्रात्मा ने अवतार लिया। तीन लोक में क्षणभर के लिए उद्योत व्याप्त हो गया। कोई अनिर्वाच्य अद्भुत सुख त्रैलोक्यवासियों का भवसंगी हो गया। मरुदेवी माता ने अर्धजागृत अवस्था में वर्णराशि में स्वर की तरह स्वप्नों में उत्तम चौदह उत्तम स्वप्न देखे। जो इस प्रकार हैं - (१) वृषभ, (२) हस्ति, (३) सिंह, (४) लक्ष्मीदेवी, (५) पुष्पों की माला, (६) चन्द्रमा, (७) सूर्य, (८) भरा हुआ कलश, (९) श्वेत ध्वजा, (१०) पद्माकर, (११) पयोराशि [क्षीर समुद्र], (१२) कल्पवासियों का विमान, (१३) रत्नों का ढेर, (१४) धुमरहित जलती अग्नि। इन चौदह पदार्थों को मुख में प्रवेश करते देखा। नाभिराजा के निद्रा से उठने पर प्रमुदित होते हुए देवी ने उन स्वप्नों को कहा। उन्होंने भी निवेदन किया कि अति उत्तम पुत्र की प्राप्ति होगी। तब एकसाथ आसन चलित होने पर सभी देव वहाँ आये। स्वप्न-पाठक (नाभिराजा) के समान शक्रेन्द्र ने भी देवी के स्वप्नों का वही अर्थ कहा। हे देवी! आपने जो चौदह महास्वप्न देखे हैं, उसका फलितार्थ यह है कि आपका पुत्र चौदह राजलोक के स्वामित्व को प्राप्त करेगा। वह मातृका-बीज के समान जगत्प्रभु होकर चौदह पूर्वो का उपदेश देगा। उसके चतुर्दश-पूर्वधर शिष्य होंगे। इस प्रकार स्वप्न का अर्थ प्रकाशित करके इन्द्र व देव अपने-अपने स्थान पर चले गये। इन्द्र के कहे हुए अर्थ को सुनकर मरुदेवी अत्यन्त प्रमुदित हुई। नाभिराजा भी अति प्रसन्न हुए। क्योंकिकस्येष्टाख्या मुदे न वा ? इष्ट कथन होने पर कौन मुदित नहीं होता? क्रम से नौ मास लगभग पूर्ण होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन रात्रि में देवी ने युगलधर्मी पुत्र व पुत्री को जन्म दिया। अचेतन दिशाएँ भी मुदित हो गयीं। तो चेतनावान् लोगों की प्रसन्नता का तो कहना ही क्या? तीन जगत् में उद्योत हो गया। देवों ने आकाश में देव दुंदुभि बजायी। नारक भी खुश हुए। धरती ने शांति की श्वास ग्रहण की। अर्थात् उस समय धरती पर किसीको अंश मात्र दुःख न रहा। सभी जीवों ने शाता का अनुभव किया। अधोलोकवासिनी आठ दिशाकुमारियों का आसन चलायमान हुआ। अरिहन्त-जन्म को अवधिज्ञान से जानकर वे सूतिकर्म करने के लिए आयीं। 'भोगंकरा, भोगवती, 'सुभोगा, 'भोगमालिनी, "सुवत्सा, 'वत्समित्रा, "पुष्पमाला और ‘अनिन्दिता नाम की आठ दिशाकुमारियों ने प्रभु व उनकी माता को नमस्कार करके ईशान कोण में सूतिगृह बनाया। संवर्तक वायु से उसे शुद्ध बनाकर घर से योजनमात्र पृथ्वी को शुद्ध बनाया। 'मेघंकरा, 'मेघवती, 'सुमेघा, 'मेघमालिनी, 'तोयधारा, 'विचित्रा, "वारिषेणा तथा 'बलाहका देवियों ने ऊर्ध्वलोक से आकर अरिहन्त प्रभु को माता सहित प्रणाम करके हर्षपूर्वक सुगंधित जल व पुष्पों द्वारा वर्षा की। 'नन्दा, 'उत्तरानन्दा, आनन्दा, 'नन्दिवर्द्धना, "विजया, 'वैजयन्ती, "जयन्ती तथा “अपराजिता इन आठ दिशाकुमारियों ने रुचक पर्वत की पूर्वदिशा से आकर जिनेश्वर भगवन् तथा उनकी माता को नमस्कार किया। फिर हाथ में दर्पण लेकर पूर्व दिशा में खड़ी हो गयीं। 'समाहारा, 'सुप्रदत्ता, 'सुप्रबुद्धा, यशोधरा, 'लक्ष्मीवती, शेषवती, "चित्रगुप्ता व “वसुन्धरा नाम की दिशाकुमारियाँ - 31
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy