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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् आज्ञा की आराधना पर दृष्टांत जो स्वयं जिनाज्ञा में नित्य रमण करते हुए भूतल पर विचरण करते हैं, वे सुसाधु इस लोक में जगत्पूज्य होते हैं। परलोक में भी वे स्वर्ग-अपवर्ग को प्रदान करनेवाली कार्मणशरीर द्वारा दुष्प्राप्य श्री का स्वयं वरण करते हैं। और भी संसार के निर्वाण रूपी फल में जिनाज्ञा की विराधना और आराधना को जानकर भव से निवृत्ति पाने की इच्छा वाले संसार से भयभीत जनों द्वारा सतत जिनाजा आराधनी चाहिए।॥२०॥ अब प्रस्तुत जिन भवन बनाने के अधिकारी को कहते हैंअहिगारी उ गिहत्थो सुहसयणो वित्तसंजुओ कुलजो। अक्खुद्दो थिइबलिओ मइमं तह धम्मरागी य ॥२१॥ वह अधिकारी गृहस्थ, शुभ आशयवाला, वित्त-युक्त, कुलवान्, अक्षुद्र अर्थात् अकृपण या अक्रूर, धृतिबल वाला, मतिमान् तथा धर्मानुरागी होना चाहिए। धृतिबल इसलिए कहा गया है कि धृतिबल से हीन व्यक्ति पश्चात्ताप के द्वारा धर्म का हनन करता है।।२१।। अधिकारी द्वारा जिनगृह के निर्माण में क्या करना चाहिए, वह कहते हैंनिष्फाइऊण एवं जिणभवणं सुंदरं तहिं बिंब। विहिकारियमह विहिणा पट्ठविज्जा लहुं चेव ॥२२॥ जिनभवन को निष्पादित करके विधिकारित सुन्दर बिंब को विधि के द्वारा शीघ्र ही प्रतिस्थापित करना चाहिए। जिनबिम्ब की कारण विधि बताते हैंसम्मान्य सूत्रधारं प्राग्वस्त्राद्यैः विभवोचितम्। मूल्यमयं विलोभस्य तस्य शुद्धेन चेतसा ॥१॥ प्रतिष्ठाविधि संक्षेप में इस प्रकार हैचैत्यान्तः शोभने लग्नेऽधिवास्योचितपूजया। स्थाप्यं बिम्बं जिनेन्द्रस्य पञ्चमङ्गलपूर्वकम् ॥२॥ इन दोनों गाथाओं का अर्थ इस प्रकार है वह जिनबिम्ब सन्मान्य, सूत्रधार को उचित वैभवयुक्त वस्त्रादि से सन्मानित करना। उसको शुद्ध चित्त से मूर्ति का उचित परिश्रम उदारतापूर्वक अर्पित करना ।।१।। चैत्य के अन्दर शुभ लग्न में अधिवासित करके उचित पूजा के द्वारा पंचमंगल पूर्वक जिनेन्द्र के बिम्ब को स्थापित करें ।।२।।२२।। अब जिनभवन की ही निर्मापन विधि को विशेष करने के लिए भेदों को कहते हैं अहिगारिणा विहीए कारवियं जं न साहुनिस्साए। तमनिस्सकडं अट्ठायड्व्यं सेसं तु निस्सकडं ॥२३॥ अधिकारी के द्वारा विधि से कराया हुआ जो साधुनिश्रित नहीं है, वह अनिश्राकृत है। अर्थात् जो साधु की निश्रा में, यति-आश्रय से अथवा मेरे गुरु यहाँ रहेंगे, व्याख्यान आदि करेंगे इस लक्ष्य से न कराया गया हो वह अनिश्राकृत है। जैसे कि भरत चक्रवर्ती द्वारा कराया हुआ अष्टापदगिरि शिखर पर रहा हुआ जिनभवन अनिश्राकृत है। शेष तो स्व गुरु द्वारा प्रतिष्ठित होने से निश्राकृत है।।२३।। श्री भरत चक्रवर्ती द्वारा कराया गया अनिश्राकृत अष्टापद चैत्य का सम्प्रदाय से वर्णन यह है 30.
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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