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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् उदायन राजा की कथा किये। राजा भी उसके ऋषि रूप को देखकर भक्ति भाव से प्रसन्न हुआ। उनके आगमन को धन्य मानता हुआ प्रिय वचनों के द्वारा उस ऋषि का अभिनन्दन किया। उसके द्वारा लाये हुए फलों को लेकर राजा दिव्य गंध-रस से युक्त फलों को देखता हुआ बहुत प्रसन्न हुआ। फिर अद्भुत श्रद्धा से युक्त वृक्ष के फलों को राजा ने आदर सहित खाया। फल के स्वाद से प्रेरित राजा ने कहा-भगवन्! आपने इस प्रकार के फल कहाँ पाये? क्या किसी देव ने दिये हैं? क्योंकि यह फल वृक्ष के तो नहीं हो सकते। उसने कहा-राजन्! ये फल हमारे आश्रम में बहुत होते हैं। तपस्वियों का तप-तेज तो स्वर्ग से भी अतिशय होता है। उन फलों के स्वाद में आसक्त बनें राजा ने कहा-हे ऋषि! इस प्रकार फलोद्यान से युक्त आपके आश्रम के मुझे दर्शन कराइये। ____ अपनी शक्ति से राजा की सभा को स्तंभित करके वह ऋषि अकेले राजा को मंत्रियों के देखते-देखते ले गया। कितनी ही दूर ले जाकर उस प्रकार के बगीचे वाले ऋषि के आश्रम को दिखाया। दृष्टि को सुख प्रदान करनेवाले आश्रम को देखकर राजा हर्षित हुआ। मैं गुरुओं के आश्रम में आ गया हूँ। मेरा भोजनादि के द्वारा सत्कार किया गया है। चिरसिंचित वृक्ष की तरह अब फल की आशा पूर्ण होगी। इस प्रकार विचार करते हुए राजा यात्रा की थकान से मार्ग में एक वृक्ष की छाया में बैठ गया। तब वहाँ के सभी ऋषि राजा को चोर समझकर उसे पकड़पकड़कर लाठी से मारने लगे। उन यमदूतों के हाथों से बड़ी कठिनाई से छूटकर जीवित बचा हुआ राजा ज्वरात के समान काँपने लगा। भागते हुए उसने आगे अर्हत् मुनि को बैठे हुए देखा। उन मुनि ने उस राजा को कहा-अब मत डरो! मत डरो। तब उनकी शरण ग्रहण करके उनके द्वारा आश्वस्त होकर स्वस्थ होकर राजा ने विचार कियाइतने दिनों तक इन दाम्भिक वेषवाले धूर्त ऋषियों के साथ बिना किसी आशंका के मैं अज्ञानी की तरह कैसे बैठा रहा? तब ऋषियों से विरक्त उसे मुनियों ने उपदेश देकर समस्त आर्हत् धर्म के मूल सम्यक्त्व का विस्तार से वर्णन किया। तब राजा के हृदय में वह सिद्धि-सुख को देनेवाला धर्म प्रविष्ट हुआ। जैसे-शुद्ध वस्त्र पर रंग चढ़ाने के लिए वस्त्र को किसी के द्वारा बांधा जाता है, तब वह बन्धन का साधन पाश कहलाता है। वैसे ही राजा को प्रभावती देव द्वारा सम्यक्त्व का रंग चढ़ाने के लिए यह सब किया गया था। तब प्रभावती देव ने प्रत्यक्ष होकर राजा को अर्हत् धर्म में स्थिर करके उससे होनेवाली श्रेयता का दर्शन कराया। तुमको महाकष्ट होने पर मेरा स्मरण करना-ऐसा कहकर अपनी संपूर्ण देवमाया का उपसंहार करके प्रभावती देव तिरोहित हो गया। राजा भी उसी क्षण अपने आपको पहले के आस्थान-मण्डप में स्वयं को सिंहासनासीन देखकर विस्मित हो गया। तब से उदायन राजा परमाहती हो गया। उसने अपने राज्य में अर्हत् धर्म की एकछत्रता की घोषणा की। इधर गन्धार देश में उत्पन्न श्राद्ध नाम का गन्धार हुआ। वैताढ्य पर्वत के चैत्य को वंदन करने के लिए वह प्रतिदिन जाता था। वैताढ्य के मूल में जाकर उसने अभिग्रह धारण किया था कि इस चैत्य को वन्दन किये बिना मैं इस जन्म में भोजन ग्रहण नहीं करूँगा। उसके इस निश्चय को जानकर शासन देवता तुष्ट हुए। उसे लेकर उस चैत्य के सामने अभिवंदना करने के लिए शासनदेवी ने उसे छोड़ा तथा कामप्रद १०८ गुलिका उसे भेंट की। 'मैं देवाधिदेव की अर्चना करने के लिए अभी वीतभयनगर जाऊँ -इस प्रकार कहकर उस गान्धार ने एक गुलिका मुँह में रख ली। उस गुलिका के प्रभाव से वह तत्क्षण वहाँ आया और उस प्रतिमा को वन्दन किया। देवदत्ता दासी को उसने देखा। दैवयोग से उसके शरीर के कुबड़ेपन के होते हुए भी अर्हत् देव के प्रति उसकी जागरणा को देखा। गान्धार ने अपनी आयु थोड़ी जानकर वे गुलिकाएँ उस कुबड़ी दासी को देकर स्वयं संयम ग्रहण किया। कुब्जा ने एक गुलिका मुख में रखकर सद्रूप संपदा पाने की इच्छा की। बनाये हुए वैक्रिय रूप की तरह वह क्षण भर में ही दिव्य शरीर की मालिका बन गयी। इस प्रकार स्वर्ण पांचालिका की तरह वह स्वर्णांगी बनकर
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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