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उदायन राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् है। अतः जो सही बात है, वही कहो। अन्योक्ति के द्वारा मुझे न छलें। हे नाथ! सद्भाव का गोपन प्रेम के अभाव का चिह्न है। तब देवी के अत्यधिक आग्रह करने पर राजा ने स्खलित वाणी के द्वारा भावी अनिष्ट की आशंका को स्पष्ट किया। हे देवी! यह दुनिमित्त है। आयुष्य की अल्पता को सूचित करता है। अतः शीतऋतु के कम्पन की तरह मेरा दिल अभी भी काँप रहा है। प्रभावती ने यह सब श्रवणकर अक्षुभित अंतःकरण से राजा को कहा-इसका यही कार्य है नाथ! कि तत्त्वज्ञों द्वारा भयभीत नहीं होना चाहिए। ग्रीष्म-ताप से क्लान्त कोयल का कण्ठ चलाचल हो सकता है। वैसे ही अगर जीवन है तो इस प्रकार के कौतुक तो होते ही रहते हैं। विद्वानों को इसमें कुछ भी शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि कोई भी मनुष्य परभव में आने या जाने में अथवा स्खलित होने में समर्थ नहीं है। सब कुछ कर्म के वश में है। और भी, हे स्वामी! मैं जन्म से ही अरिहन्त प्रभु की उपासिका हूँ। मेरे दिल में देव अरिहन्त व गुरु सुसाधु हैं। मैं धर्म-कर्म की विनिर्मिति से कृतकृत्य हूँ। अगर इसी समय मृत्यु आ जाय, तो भी कोई भय नहीं है। मेरे परमानन्द के कारण में जो यह कु दुर्निमित बना है, इससे ज्ञात होता है कि मुझे धर्म में विशेष प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार कहकर देवी निर्विकार भाव से अपने आवास में चली गयी। राजा अपनी प्रेयसी के विघ्न की आशंका से विमना हो गया।
___एक दिन प्रभावती देवी ने देव अर्चना के लिए स्नान आदि करके अपनी दासी को पवित्र श्वेत वस्त्र लाने के लिए आदेश दिया। दासी भी उन वस्त्रों को लेकर आ गयी। पर भावी अनिष्ट के वश से देवी को वे वस्त्र लाल दिखायी दिये। तब देवी क्रुद्ध होकर उसको बोली-हे बेवकूफ! क्या मैं सोलह वर्ष की नवयौवना बनकर जानेवाली हूँ, जो तुम यह लाल वस्त्र लेकर मेरे पास आयी हो? इस प्रकार देवी द्वारा दासी पर कुपित होने से वह दासी देवी के देखते ही देखते चक्र से आहत की तरह तत्काल ही भूमि पर गिरकर मर गयी। ____तभी श्वेत वस्त्रों को देखकर तत्क्षण ही देवी परम विषाद को धारणकर अवाक् रह गयी। अहो! अपराध के बिना ही मेरे द्वारा दासी मारी गयी। चिरकाल से पालित मेरा पहला व्रत आज खण्डित हो गया। श्रुत में पंचेन्द्रिय वध को नरक का द्वार कहा गया है। लोक में भी स्त्री-हत्या को महापाप कहा गया है। जैसे वस्त्र को निर्मल करने में जल तथा सोने-चाँदी को निर्मल करने में आग कारण है, वैसे ही मेरे निर्मलीकरण का कारण अब संयम ही है।
___ इस प्रकार विचार करके देवी ने राजा को अनिष्ट दर्शन कहा। दासी के प्राणभंग से प्रथम व्रत का भंग भी बताया। व्रत भंग से उत्थित वैराग्य जल से प्लावित नयनों के द्वारा महादेवी ने राजा से कहा-हे प्रभो! आपके द्वारा एक अनिष्ट देखा गया और मेरे द्वारा दूसरा। इन दोनों अनिष्टों से ज्ञात होता है कि मेरी आयु बहुत ही अल्प है। अतः हे प्रिय स्वामी! यह जानकर मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं संयम मार्ग को स्वीकार करके निरवद्या बनूँ। यह सब सुनकर तथा देवी की अल्प आयुष की संभावना से राजा ने कहा कि हे देवी! जो तुम्हें रुचिकर लगे, वही करो। पर यदि मैं तुम्हें अभी भी प्रिय हूँ तो हे देवी! देवत्व को प्राप्त होने के बाद, तुम मुझे मोक्षमार्ग में बोधित करना। प्रभावती ने भी राजा की प्रणय से उज्ज्वल वाणी को स्वीकार किया। क्योंकि
स्नेहस्य ही रहस्यं तद्यादाज्ञा न विलंङ्घयते । अर्थात् स्नेह ही वह रहस्य है, जिससे कि उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
राजा के द्वारा देवाधिदेव की प्रतिमा की पूजा के लिए विशेषरूप से देवदत्ता नाम की कुब्जिका दासी को नियुक्त किया। महाप्रभावना के साथ शुद्ध भावों से प्रभावती ने परिव्रज्या लेकर अनशन करके प्रतिक्षण चित्तसमाधान रूपी सुधारस का पान किया। आयुष्य पूर्णकर सौधर्म देवलोक में सौधर्मेन्द्र के समान देव के रूप में उत्पन्न हुई। तब प्रभावती ने अवधिज्ञान से उपयोग लगाकर राजा के प्रतिबोध के आग्रह को जाना। ऋषि के रूप में राजा के आस्थान मण्डप में आयी। स्नेह भाव से अमृत के समान स्वाद वाले फल-उपहार आदि हाथों से भेंट
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