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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्यक्त्व जाता है- काल तीन प्रकार का है। द्रव्य छ प्रकार का है। पद नौ होते हैं। काय व लेश्या छः प्रकार की है। अस्तिकाय भी पाँच होते हैं। व्रत, समिति, गति, ज्ञान, व चारित्र भी पाँच-पाँच भेद वाले हैं। ये मोक्ष के मूल हैं। त्रिभुवन पूज्य अर्हत् स्वामी द्वारा कहे हुए पर जो विश्वास करता है, श्रद्धा करता है, स्पर्शना करता है, वह मतिमान ही वैशुद्ध दृष्टिक है। इसका भावार्थ इस प्रकार है - अतीत-अनागत-वर्तमान रूप काल। द्रव्य गुण के आश्रित हैं उम्का षटकधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय तथा काल रूप-ये षट्क है। नवपद-जीव-अजीव आदि। काया और लेश्या - यह कायलेश्या। इनके छ की संख्या-षट्कायलेश्या। जीवों की षट्कायलेश्या जीवषट् कायलेश्या। षट्काय-पृथ्वी आदि। षट्लेश्या-कृष्ण आदि। पाँच ही अस्तिकाय हैं - धर्मअधर्म आदि। यहीं पाँच शब्द व्रतादि में भी जोड़ा गया है। व्रत पाँच है - प्राणिवध से विरमण आदि। समिति पाँच हैं - ईर्या आदि। गति-नारक आदि ज्ञान-मतिज्ञान आदि। चारित्र-सामायिक-छोदोपस्थापनीय आदि। इन सब से सहित जीव ही श्रेष्ठ सम्यक्त्व रत्न को निरतिचार धारण करता है।।४६॥२५२।। इसमें सम्यक्त्व है - यह किन लिंगों द्वारा जानना चाहिए - यह बताते हैं - उत्सम संवेगो यि य निव्येओ विय तहेव अणुकंपा । आत्थिक्कं च एव तहा सम्मत्ते लक्खणा पंच ॥४७॥ (२५३) उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा व आस्था - ये सम्यक्त्व के पाँच लक्षण है। तीव्रकषाय का अनुदय उपशम है। मोक्ष की अभिलाषा संवेग है। भव से विरक्ति निर्वेद है। दुःखी पर दया करना अनुकम्पा है। तत्त्वान्तर के श्रवण करने पर भी जिन धर्म में ही श्रद्धा रखना आस्था है। ये पाँच सम्यक्त्व के सत्ता में रहने पर होते ही हैं।।४७।।२५३।। सम्यक्त्ववान को शुद्ध परिणाम होता है, इसे बताते हुए कहते हैं - इत्थ य परिणामो खलु जीवस्स सुद्धो उ होड़ विन्नेउं । किं मलकलंकमुक्कं कणगं भुवि ज्झामलं होइ ॥४८॥ (२५४) सम्यक्त्व होने पर जीव का परिणाम यानि भाव निश्चय से शुभ ही होता है - यह जानना चाहिए। इसी को ही अर्थान्तर न्यास के द्वारा समर्थित किया जाता है। जैसे - मल कलंक रहित सोना पृथ्वी पर पड़ा हुआ क्या ध्यामल होता है अर्थात् नहीं होता है।॥४८॥२५४।। अब उपशम आदि से प्राणियों की क्रिया विशेष को कहते हैं - पयईए कम्माणं वियाणिउं या वियागमसुहंति । अवरद्धे वि न कुप्पइ उवसमओ सब्यकालंपि ॥४९॥ (२५५) प्रकृति से अर्थात् स्वभाव से कर्मों के यानि कषाय रूप कर्मों के अशुभ विपाक को जानकर अपराध होने पर भी उपशम भाव से सर्व काल में अर्थात् अपराध निग्रह में समर्थ होने के काल में भी क्रोध न करे।।४९।२५५। तथा - नरविबुहेसरसुक्खं दुःखं चिय भावउ य मन्नतो । संवेगओ न मुक्खं मुत्तुणं किं पि पत्थेइ ॥५०॥ (२५६) नर विबुधेश्वर अर्थात् राजा, इन्द्र आदि का सोख्य दुःखमय ही है, इस प्रकार भाव से मानते हुए संवेग से मोक्ष को छोड़कर और कुछ प्रार्थना नहीं की जाती। कहा भी है - 318
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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