SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनदास की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् जिससे कि मुझे यह मन वचन से अगोचर भूति प्राप्त हुई है। अतः बौद्ध धर्म को बहुमान से वह उज्जयिनी नगरी गया। उस दिव्यमूर्ति को नमन कर अपने स्वरूप का निरूपित किया फिर स्वयं अदृश्य रहकर तथा दृश्य हाथ द्वारा बौद्ध भिक्षु को प्रतिदिन देव द्वारा निर्मित आहार देने लगा। तब सौगतों का अर्थवाद (प्रभावकता) वहाँ महान् हुआ। अन्य आर्हत् आदि की अवमानता हुई। एक बार आचार्य धर्मघोष सूरि वहाँ पधारे। श्रावकों ने उन्हें प्रणामकर सर्व हीलना आदि कही एवं कहा भगवन्! आप कुछ कीजिए, जिससे यहाँ शासन की महती उन्नति हो। गुरु ने अपने श्रुतज्ञानोपयोग द्वारा सारा वृतान्त यथावत् जानकर दो मुनियों को बुद्ध-सदन में जाने का आदेश दिया और कहा कि अगर उस दिव्य हाथ से उन बौद्ध भिक्षुओं द्वारा तुम्हे भिक्षा प्रदान करायी जाय तो उस हाथ को शीघ्र ही पकड़कर उच्चस्वर में पाँच नमस्कार पढ़कर इस प्रकार कहना - हंहो! जागृत हो, जागृत हो! इन पाखंडियों में मोहित मत बन। वे दोनों मुनि पुगंव बौद्ध विहार में गये। ऋद्धि-गर्वित उन्होंने सामने आकर खुश होते हुए कहा - यह है, यह है, वह हाथ, जो दिव्य आहार तुम्हें भी देगा। मुनि भी वहाँ गये, जहाँ वह हाथ देता था। भिक्षुओं के वाणी द्वारा जब वह हाथ देने के लिए प्रवृत्त हुआ, तभी उन दोनों मुनियों ने उस हाथ को पकड़कर गुरु द्वारा आदिष्ट अच्छी तरह से कहा। सहसा यह सुनकर उसने भी सम्यक प्रकार से अवधि ज्ञान का उपयोग लगाया। तत्त्व ज्ञात होने पर वह शीघ्र ही दिव्य रूप में उनके सामने प्रकट हुआ। भक्ति, प्राग्भार निर्भर उसने दोनों साधुओं को वंदन किया। अदृष्ट-चरों की तरह उन सभी सौगतों को दूर करके, पृथ्वी तल पर अवतीर्ण सूर्य की तरह, पृथ्वी का पेट भरनेवाली द्युति से युक्त, दिव्य आभरण आदि श्री से स्वयं इन्द्र की तरह उन दोनों साधुओं के साथ गुरु की सन्निधि में आकर अपना मस्तक भूमि पर रखकर कृतांजलि पूर्वक गुरु को नमस्कार करते हुए कहा - भगवन्! आप ने साधुओं द्वारा मेरा अच्छा उद्धार किया गया। अन्यथा मिथ्यात्व से मूढ बुद्धि द्वारा मैं तो भव-सागर में डूब जाता। परोपकार की धुरिता तो प्रभो! आप में ही स्थित है जो कि सुधा में मधुरता तथा यौवन में सौन्दर्य की तरह है। ___इस प्रकार गुरु की प्रशंसा करते हुए उनके साथ चैत्य में जाकर जिनदास देव ने अर्चा आदि के द्वारा प्रभावना की। वृष्टि आगमन से प्रफुल्लित मयूर की तरह हर्षपूर्वक उस देव ने ताण्डव-नृत्य किया। फिर लोगों को कहा - हे जनों! सुनो। सुनो। सभी धर्मों में उत्तम व सम्यग् यह आर्हत-धर्म है। भव-अम्बोधि से पार कराने वाले मोक्ष रूपी वृक्ष का यह बीज है। इसी धर्म के प्रभाव से मुझे इस प्रकार की ऋद्धि प्राप्त हुई है। अतः तुम सभी को इसी धर्म में प्रयत्न करना चाहिए। अन्य धर्म से क्या प्रयोजन! अर्हत् धर्म का फल सुनकर व देखकर बहुत से लोगों ने शुभमति द्वारा आर्हत धर्म को स्वीकार किया। अर्हत् प्रवचन की इस प्रकार प्रभावना करके गुरु के चरणों में नमस्कार करके वह देवलोक में चला गया। __इस प्रकार के प्रभाव वाले कितने ही आचार्य होंगे, जो मिथ्यात्व-अर्णव में गिरे हए मढों का उद्धार करेंगे। दुष्ट व्यसनों के समूह के समान पर पाखंडी के परिचय को तत्त्व मार्ग में लीन भव्यों द्वारा त्याग करना चाहिए। इस प्रकार परपाखण्डी -संस्तव में जिनदास की कथा संपर्ण हई॥४५॥२५॥ अब सम्यक्त्ववान की प्रशंसा करते हए कहा जाता है - ते धन्ना ताण नमो तिच्चिय चिरजीविणो बुहा ते य । । के निरइयारमेयं धरंति सम्मत्तवररयणं ॥४६॥ (२५२) वे धन्य हैं। उन्हें नमस्कार है। निश्चय ही वे सम्यक्त्वधारी बुधजन चीरंजीवी होंगे, जो निरतिचार सम्यक्त्व रत्न को धारण करते हैं। कोई-कोई जिनोक्त काल द्रव्य आदि को विपरीत रूप से मानते हैं। उनका निराकरण करने के लिए कहा - 317
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy