SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् भवदत्त की कथा उधर कोई चोर गृह के अन्दर खात्र खोदकर रत्नपेटिका को लेकर छिपे हुए सर्प की तरह वहाँ से निकला। किसी भी प्रकार से उसको जानकर आरक्षक उसके पीछे दौड़े। मृग की तरह उसको भागते हुए देखकर वे भी बाघ की तरह झपट पड़े। उनके द्वारा पकड़े जाने के भय से भागा जाता हुआ वह चोर उसी वनखण्ड में आ गया। पर्वत से पूर्व रूके हुए समुद्र की तरह वज्र भय से त्रस्त वह जंगल में आ गया। आरक्षक भी रात्रि में वन को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। अभी भले ही भाग कर हाथ न आये, पर कहाँ जायगा? कल इसे पकड़ लेंगे। चोर ने भी वनखण्ड के अन्दर भवदत्त वणिक को अग्नि के उद्योत में देखकर भय से विस्मित होते हुए विचार किया - क्या यह भूत या पिशाच तो नहीं है, जो कि श्मशान में रात्रि में रहकर वृक्ष पर आरोह-अवरोह कर रहा है। मेरी मृत्यु प्रभात में भी है और सम्मुख भी है। तो फिर एक बार साहस कर ही लेता हूँ। क्योंकि - न सिद्धिः साहसं बिना। अर्थात् साहस के बिना सिद्धि नहीं है। यदि इसको साध लूँगा तो विराट साम्राज्य प्राप्त करूँगा। अन्यथा तो कल आने वाली मृत्यु अभी ही आ जायगी। यह विचारकर उसने दौड़कर उसको बुलाया। ससंभ्रम होते हुए क्षोभ से कम्पन रोग की तरह वह भी काँपता हुआ। खड़ा रह गया। चोर ने भी जान लिया कि यह देव तो नहीं है। तब कोमलतापूर्वक पूछा - कौन हो? कहाँ से आये हो? यहाँ कैसे हो? उसने कहा - मैं भवदत्त हूँ। नगर के मध्य से यहाँ विद्या साधने के लिए आया हूँ। पर हे भद्र! अग्नि से डर लगता है। विद्या सिद्ध होगी या नहीं, पर अग्नि द्वारा शरीर जल जायगा - इस डर से बार-बार चढ़ता उतरता हूँ। तस्कर ने कहा - तुम्हें विद्या किसने दी? उसने कहा - मेरे मित्र श्रावक जिनदत्त ने मुझे यह विद्या दी। चोर ने विचार किया - निश्चय ही श्रावक करुणायुक्त होते हैं। वे कदाचित् भी चींटी मात्र की भी हिंसा की कामना नहीं करते। यह वणिक कायर है। अतः विद्या सिद्ध नहीं कर सकता। यह आप्तजन के पास विद्या प्राप्त करके भी शंकित मानस वाला है। मैं इस विद्या को निःशंक होकर साध सकता हूँ। क्योंकि - न हि दोलायमानानां जायन्ते कार्यसिद्धयः। दोलायमान चित्त वालों की कार्य सिद्धि कभी नहीं होती। उस तस्कर ने इस प्रकार सोचकर वणिक् से कहा - यह विद्या मुझे दो, जिससे मैं इसे साध सकूँ। वणिक ने कहा - क्या यह विद्या जैसे-तैसे प्राप्त होती है। महाकष्ट पूर्वक अपने मित्र से मैंने इसे प्राप्त की है। तब उस चोर ने कृपाण निकालकर कहा अगर मुझे नही दोगे तो वृक्ष से फल की तरह तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दूंगा। अगर विद्या दोगे, तो प्रसन्नतापूर्वक यह रत्नकरण्डिका तुम्हें गुरु-दक्षिणा में दे दूंगा। भयभीत होते हुए उसने कहा - विद्या दे दूंगा। मुझे मत मारो। बन्दी बनाये हुए लोग क्या अपना सर्वस्व नहीं दे देते! यह विद्या जो मुझे नहीं देगी, वह रत्न पेटी से मिल जायगा। यह महामूल्य वाली वस्तु सिर्फ धन से ही प्राप्त होती है, जो मुझे विद्या दान के द्वारा प्राप्त हो जायगी। विद्यासिद्धि में तो फिर भी सन्देह है, पर धन तो निस्सन्देह प्राप्त होगा। यह सोचकर रत्न पेटिका लेकर उसने चोर को विद्या दे दी। उसने भी सम्यग् विनयपूर्वक विद्या लेकर वह रत्नकरण्डिका उस वणिक को समर्पित कर दी। निःशंक मन द्वारा चोर ने उसी समय सिक्के पर चढ़कर एक सौ आठ बार जाप करके योगी की तरह विद्या में लीन होते हुए एक साथ सिक्के के पादों को छेद दिया। शीघ्र ही विद्यासिद्ध हो जाने से उपर विमान प्रकट हुआ। वह विद्यासिद्ध विमान के द्वारा बिना किसी अवरोध के तीर्थों को वन्दन करने के लिए नन्दीश्वर द्वीप चला गया। प्रभात में वणिक को रत्नपेटिका सहित वन से निकलते हुए देखकर आरक्षकों ने शिकारी द्वारा मृग को पकड़ने के समान उसे चोर-बुद्धि से पकड़ लिया। राजा को निवेदन किया गया। राजा ने भी उसे रत्नपेटिका सहित देखकर वध का आदेश दे दिया। क्योंकि चोर को मृत्युदण्ड ही दिया जाता था। तब उन आरक्षकों द्वारा उसे वध 308
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy