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________________ भवदत्त की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् ॥ भवदत्त की कथा ।। श्रावस्ती नामकी विशाल नगरी थी। अपनी श्री - शोभा द्वारा सर्व रूप से अलकापुरी को जीताती हुई स्थित सम्यग्दर्शन थी। उस नगरी में जिनदत्त नामक श्रावक था, जो विवेकी, जीवाजीव आदि तत्त्वों को जानने वाला, युक्त शुद्ध बुद्धिवाला था। वह संवेग की लहरों से रंजित, संपूर्ण कल्मष को प्रक्षालित किये हुए, कृपावान् प्रशम भावों का सागर एवं बारह व्रत धारी था। परमेष्ठि महामन्त्र की साधना के प्रभाव से विद्याधर आदि की तरह पूर गामी आकाश-गमन लब्धि से युक्त था । एक बार नन्दीश्वर द्वीप में शाश्वत अष्टाह्निका महोत्सव में अर्हतों की पूजा आदि साक्षात् देखने के लिए जिनदत्त वहाँ आया। वहाँ दिव्य सौरभ से वासित अत्यन्त सुरभिद्रव्य युक्त जिन पूजा आदि को देखता हुआ वह सौरभ में लीन हो गया। यात्रा के अंत में सभी देव आदि यथा स्थान चले गये। वह भी नाटक के खत्म हो जाने की तरह अपने पुर में आ गया। वहाँ उसका भवदत्त नामक मित्र था । वह व्यापार में आसक्त प्रथम गुणस्थानवर्त्ती जीव था अर्थात् मिथ्यादृष्टि था। पास में बैठकर उसने जिनदत्त को कहा - भ्राता ! इस तरह की सुरभि गंध कहाँ से प्रकट हुई है। देव या विद्याधर भी यहाँ दिखायी नहीं देते। जिनदत्त ने कहा - भद्र! चैत्यअर्चना आदि देखने के लिए मैं आकाश मार्ग से नंदीश्वर द्वीप में गया। अतः सखे! मेरा शरीर वहाँ के पूजापरिमल से महकता पूजालोक ने मानस को अत्यन्त वासित बना दिया है। भवदत्त ने कहा- मुझे भी वह विद्या प्रदान करो, जिससे मैं तुम्हारी तरह आकाश मार्ग से गमन करूँ । उसने कहा- भाई! यह विद्या जैसे-तैसे प्राप्त नहीं होती । शुद्ध-बुद्धि व महाक्रिया से युक्त होकर ही साधी जाती है। 'तीर्थंकर की पूजा करके, मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करके, भाव से आर्हती होकर, ब्रह्मचर्य के द्वारा त्रिकाल अखण्ड चावलों द्वारा, खिले हुए फूलों द्वारा, एक लाख जाप द्वारा, भूमि पर शयन करने से, एकासनाकर भवव्यापार का त्याग करने से, छः मास तक मौन द्वारा एकाग्र होकर सदा जाप करने से, पूर्वसेवा करके - इस प्रकार महासाहस शालियों द्वारा कृष्ण पक्ष के चतुर्दशी के दिन श्मशान में जाकर कोई झूले की तरह वृक्ष की शाखाओं में सिक्के को बाँधे । खेर के अंगारे भरकर नीचे तीन लोहे के कुण्ड रखे। फिर सिक्के पर चढ़कर एक सौ आठ बार जाप करते हुए वह सिक्कों के पाँवों को एक-एक करके काटे । उन सभी के काटे जाने पर एक विमान उपहार में प्राप्त होता है । फिर देवलीला से आकाश मार्ग द्वारा जाया जाता है। उसका कहा हुआ सुनकर भवदत्त ने भी कहा- मैं ऐसा ही करूँगा। तुम मुझे विद्या द्वारा प्रसन्न करो। तब उसने भी निर्बन्ध रूप से वह विद्या उसे दे दी । भवदत्त भी विद्या प्राप्तकर निधि प्राप्ति की तरह संतुष्ट हुआ। फिर उसने मिथ्यात्व का त्यागकर शीघ्र ही सम्यक्त्व को ग्रहण किया। बारह व्रत धारणकर शीघ्र ही श्रावक बन गया । उसके बाद उसके कहे हुए क्रम से प्रारम्भ करके उस पूर्व सेवा को शुद्ध बुद्धि द्वारा छः मास तक करके कृष्णचतुर्दशी के दिन उसी की साधना विधि की । सिक्कों के पग छेदन काल के समय नीचे अग्नि देखकर विचार किया - • विद्या तो सिद्ध होगी या नहीं, पर अग्नि के द्वारा अंग तो जल ही जायगा । इस प्रकार की शंका से उत्पन्न भय के कारण वह नीचे उतर गया। पुनः विचार किया कि मैंने अति कष्टपूर्वक विद्या प्राप्त करके पूर्व सेवा की है। तो क्या अब कायर बन जाऊँ? इस प्रकार सोचकर पुनः वृक्ष पर चढ़कर जाप करके उसी प्रकार सिक्के के अह्नि छेद काल में अग्नि दिखायी देने से "विद्या सिद्ध होगी या नहीं, पर अग्नि से अंग तो जल ही जायगा " ऐसी आशंका करके भय से उद्भ्रान्त होता हुआ । पुनः उतर गया। इस प्रकार बाँस के ऊपरी भाग पर रहे हुए चंचल बन्दर की तरह वह बार-बार चढ़ने उतरने लगा । 307
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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