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सम्प्रति राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
बयालीस दोष टालकर हमें दी जाती है। नमस्कार मन्त्र, शक्रस्तव आदि पढ़े जाते हैं। जीवों पर अनुकम्पा की जाती है। इस प्रकार करने पर ही संप्रति राजा भविष्य में खुश होंगे, अन्यथा नहीं। उन्होंने भी वे - वे सभी क्रियाएँ राजा को खुश करने के लिए कीं। सुभटों ने भी आकर वह सब वृतान्त राजा को कहा । संप्रति राजा ने भी गुरु को जानकारी दी कि प्रभो! सुसाधु अनार्य देश में क्यों विचरण नहीं करते? गुरु ने कहा- वहाँ के लोग अज्ञानी होते हैं, अतः वे लोग व्रत को नहीं जानते । राजा ने कहा- प्रभो! तब उनके आचार की परीक्षा करने के लिए पहले चरों की तरह कुछ तपोधनी मुनियों को वहाँ भेजना चाहिए । तब राजा के अनुरोध से गुरु ने कुछ मुनियों को आन्ध्र, द्रमिल आदि देशों में विहार करने के लिए आदेश दिया। उन्हें देखकर उन अनार्यों ने राजा के विशिष्ट व्यक्ति जानकर वस्त्र, अन्न-पान, पात्र आदि द्वारा उसी प्रकार प्रतिलाभित किया। तब वे तपोधनी उनके श्रावक भाव से रंजित हुए। वहाँ से आकर प्रसन्नतापूर्वक अपने गुरु को सभी वृतान्त कहा। इस प्रकार संप्रति राजा की बुद्धि एवं सद्धर्मशुद्धि के द्वारा साधुओं का वहाँ नित्य विहार होने से वे भी भद्रिक बन गये ।
एक बार संप्रति राजा ने अपने पूर्वभव के भिखारीपने को याद करते हुए नगरी के चारों द्वारों पर धर्मशालायें बनवायीं। अपने लिए ही नहीं, दूसरों के भोग के लिए भी यथा - इच्छित, बिना मना किये सभी को नित्य ही वहाँ भोजन दिया जाने लगा। वहाँ पर बचा हुआ अन्न आदि वे नियोगी साधु ग्रहण करने लगे । राजा को उन्होंने वि ग्राहिण मुनियों के बारे में कहा। तब राजा ने उनको आदेश दिया कि तुम लोग ये सारा अन्न यति आदि को प्रासुक व एषणीय तथा उद्धृत कहकर दे देना । भक्ति द्वारा परवश राजा ने क्रीत-दोष को नहीं जानते हुए के समान यह कहा कि उनकी वृत्ति के लिए मेरे द्वारा धन दिया जायगा । तब राजाज्ञा से वे लोग साधुआँ को उद्धृत्त बताकर अन्न आ देने लगे। साधु भी औद्देशिकी आदि दोष से रहित जानकर आहार आदि ग्रहण करने लगे। फिर राजा ने हलवाइयों को, वस्त्र-व्यापारियों को, गांधिकों को तथा तेल - घी- दही आदि से बने हुए पक्वान्न के व्यापारियों को फल आदि के व्यापारियों को सभी को कहा कि ये साधु जो-जो भी वस्तु ग्रहण करे, वह वह उनकी इप्सित वस्तु दे दी जाय और मुझसे उन संपूर्ण वस्तुओं को क्रय मूल्य ले लिया जाय । तब राज - पूज्य उन साधुओं को बुला - बुलाकर वे लोग भी उनकी इष्ट-इष्टतम वस्तुएँ भक्तों की तरह देने लगे । आर्य सुहस्ति उस सब को दोषयुक्त जानकर भी स्नेह से सहने लगे, क्योंकि
शिष्यस्य को न मोहेन मोहितः ?
शिष्य के मोह से कौन मोहित नहीं होता ?
इधर गच्छ की बहुलता से अलग उपाश्रय में स्थित गुरु महागिरि ने यह सभी जानकर सुहस्ति गुरु से कहा • संपूर्ण दस पूर्व को जानते हुए भी अनेषणीय राजा के अन्न को नहीं जानते हुए की तरह क्यों ग्रहण करते हो? सुहस्ति गुरु ने कहा - भगवन्! लोक पूजित का पूजक होता है। राज्य पूज्य जानते हुए लोग हमें आदर से इस प्रकार देते हैं। तब उसे मायावी जानकर रोषपूर्वक आर्य महागिरि ने कहा - तो फिर आज के बाद हमारा परस्पर विसंभोग है । समान कल्प तथा समान छन्द वालें साधुओं का ही आपस में संभोग होता है। विपरीत स्वरूप होने से तुम हमसे बाहर हो । सुहस्ति भी डर गये । आर्य महागिरि को वंदन करके विनय से नम्र अंग वाले होकर कंपित करांजलि द्वारा कहा प्रभो ! एक अपराधवाला होने से मेरा अपराध क्षमा करो । पुनः नहीं करने अब मिथ्या दुष्कृत देता हूँ | महागिरि गुरु ने कहा- इसमें तुम्हारा अथवा किसी का क्या दोष है ? भगवान् महावीर ने यह सब तो पहले ही कह दिया था। यहाँ हमारी संतान परम्परा में स्थूलिभद्र से आगे प्रकर्ष रूप से गिरती हुई साधुओं की समाचारी होगी। उनके बाद हम दोनों ही तीर्थ प्रवर्त्तक हैं। अतः तुम्हारे द्वारा महावीर स्वामी का वचन सत्यापित हुआ। इस प्रकार कहकर उस आचार्य को सद्भाव पूर्वक पापों की क्षमा प्रदान करके गुरु महागिरि ने पुनः सांभोगिक किया।
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