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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्प्रति राजा की कथा अगर आप ने मुझ पर कृपा न की होती, तो मैं क्षुधा-पिपासा से पीड़ित आर्त्त-ध्यानपूर्वक पता नहीं किस दुर्गति में जाता। आपके चरण-प्रसाद से ही यह अद्भुत साम्राज्य प्राप्त हुआ है। अतः हे स्वामिन्! इस समय मुझे जो करना चाहिए, उसका उपदेश दीजिए। तब गुरु ने कहा - हे वत्स! तुमने जैन धर्म का फल साक्षात् पाया है। अतः उसी में आदर करो। तब राजा संप्रति ने सम्यक्त्व मल श्रावक धर्म को स्वीकार किया. जिससे श्वेतपटवाले पोत की तरह श्रावक धर्म के द्वारा भव-उदधि को तैरकर पार कर सके। अर्हती बनकर अर्हत् के चरणों की अष्टप्रकारी पूजा करते हुए व्याख्यान रस-पान रूपी एक लालसा से युक्त होकर गुरु की उपासना करने लगा। संघ को अनिर्विघ्न रूप से दान देने लगा। अर्हतों की अर्चना करते लगा। राजा सभी को प्रतिबोधित करके दयाधर्म में प्रवृत्ति कराने लगा। प्रत्येक गाँव, प्रत्येक नगर में चैत्य बनवाये जाने से पृथ्वी सर्वांग से मुक्तामय विभूषण वाली हो गयी। सभी मिथ्यादृष्टि भी तब आर्हत हो गये। क्योंकि - राजानुगो लोकः स्फाति पुण्यानुगा यथा। राजा के अनुगम से लोग अत्यधिक पुण्य का अनुगमन करते हैं। सुसाधु और सुश्रावक के द्वारा प्रतिबोध करने के लिए म्लेच्छ राजाओं को उसके द्वारा बुलाया। राजा ने स्वयं विस्तारपूर्वक धर्म का आख्यान किया उनको भी सम्यक्त्व ग्रहणकर श्रमणोपासक बनाया। राजा आदि उसी प्रकार धर्मकार्य में स्थित रहें। और वे दोनों आचार्य विहारकर गये। कुछ समय बाद महागिरि व सुहस्ती गुरु पुनः वहाँ पधारे। ___महाजनों द्वारा उज्जयिनी में चैत्य में यात्रा की गयी। इसके अनन्तर रथयात्रा-महोत्सव प्रारम्भ हुआ। तब संप्रति महाराज के साम्राज्य में महाओज वाले जैनधर्म में रथ निकला। स्थान से महिमा अति महीयसा थी। पुष्पित उद्यान के समान पुष्पों से, फलों के ढेर से कल्पवृक्ष के समान, महावस्त्रों की दूकान के समान सैंकड़ों परिधानों से रण-तूर्य की आवाज के समान वाद्यों द्वारा मोह को व्यामोहित करते हुए घर-घर में मांगलिक की तरह पूजा को प्रथम रूप से ग्रहण कराते हुए, उल्लास पूर्वक नाटकों में आसक्त घूमर नृत्य से युक्त नगर, चारों ओर से विपुल श्रृंगार को धारण की हुई नारियाँ द्वारा गाये जाते हुए, चामरों को हिलाये जाते हुए, वह रथ स्मित युक्त मनुष्यों द्वारा हाथी की तरह देखे जाते हुए, इस प्रकार के निरुपम उत्साह से युक्त संपूर्ण मनुष्यों व देवों द्वारा वह जैनों का महारथ राजा के आवास-द्वार के पास आया। राजा ने स्वयं वहाँ आकर सामन्तों व पार्थिवों के साथ पूर्णविधि से अभ्यर्चना की एवं आगे पुष्प बिखेरे। महाप्रभावना करते हुए राजा सम्प्रति अपने सामन्त राजाओं के साथ उस रथ के पीछे-पीछे चला। उस राजा की सम्पूर्ण विधि देखकर सभी घर चले गये। तब उसने उन राजाओं से कहा - आप मेरा कार्य धन से न करें। पर अगर मुझे स्वामी मानते हैं, तो आप भी अब दोनों लोक में सुख देने वाले धर्म की प्रवृत्ति अपने-अपने देशों में सर्वत्र करायें, जिससे मेरी प्रीति बदे। तब उन राजाओं ने भी अपने-अपने देश में जाकर जिनेश्वर के चैत्य करवाये। यात्राएँ करवायी तथा अद्भुत रथयात्रा का उत्सव करवाया। हमेंशा साधुओं की उपासना करने लगे। अमारि की घोषणा सर्वत्र करवा दी। राजा के अनुकरण से लोभी धर्मतत्पर बन गये। फिर साधु साध्वियों के साधुचर्या द्वारा विहार करने के लिए वे प्रयान्तर देश भी मध्य देश की तरह हो गये। एक बार संप्रति राजा ने विचार किया कि साधु गण अनार्य देश में भी विहार करें, तो वहाँ के लोग भी धर्म को जानने लगेंगे। तब अनार्य देशों के राजाओं को भी राजा सम्प्रति ने आदेश दिया कि तुमलोग मेरे चरों को जैसा वे चाहें, उस रूप में कर दे देना। फिर अपने सैनिकों को प्रशिक्षित करके उन्हें साधु वेष पहनाकर वहाँ अनार्य देश में भेजा। उन्होंने भी वहाँ जाकर उनलोगों को साधुचर्या का उपदेश दिया। हमारे आने पर सामने आना व जाने पर हमारे पीछे आना। जमीन पर पंचांग नमाकर हमे प्रणाम करना। अन्न, पानी, शय्या, वस्त्र, पात्र आदि वस्तु 304
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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