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________________ केशी गणधर प्रदेशी राजा की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् स्वर्ण की खान सुनकर उन्होंने चाँदी मात्र को छोड़कर आगे जाकर सोना ग्रहण किया। क्योंकि - कस्येच्छा नाऽधिकाऽधिके? अधिक-अधिक ग्रहण करने की किसकी इच्छा नहीं होती? रत्न पर्वत को आगे जानकर अपने पास में जो कुछ भी स्वर्ण था, उसे खुशी-खुशी छोड़कर रत्नों की लिप्सा से वे आगे गये। उन्होंने खानें खुदवाकर सवा लाख मूल्य के रत्न प्राप्त किये। खान खुदने वालों को प्राप्त धन का दसवाँ भाग दिया। शेष धन का नौवाँ भाग राजपुरुषों को दिया। फिर उन्होंने रत्नपर्वत को खोदना शुरु किया। उन मित्रों में से एक मित्र ने कुशों का त्याग नहीं किया। उन दूसरे मित्रों द्वारा उसे बार-बार कुशों का त्यागकर अन्यअन्य उत्तरोत्तर अन्य-अन्य वस्तु लेने का आग्रह किया। पर उसने नहीं माना और कहा कि मैं तुम लोगों की तरह अपने आशय से विचलित होनेवाला नहीं हूँ। कुछ छोड़कर अथवा ग्रहण करके मैं कुशों से निवृत्त हूँ। तुमलोग लोभ के मारे धूल में मिल रहे हो। मैं तो कुश का तकिया बनाकर आराम से सोता हूँ। अन्य सभी ने पाँच-पाँच रत्न प्राप्त किये। फिर लौटकर वे अपने नगर में आ गये। जो मित्र अन्य-अन्य वस्तु छोड़कर रत्नों को लेकर आये थे, हे राजन्! वे उस रत्न-द्रव्य से सुखों के पात्र बने। कुशवित्त ने रत्नों से प्राप्त उनकी प्रवृत्ति को देखकर चिरकाल तक शोक करता हुआ, पश्चाताप करता हुआ दुःख का पात्र बना। इसी प्रकार हे राजन्! परम्परा से आये हुए तुम्हारे कदाग्रह को तुम भी कुशवित्त की तरह त्याग नहीं करोगे, तो सौख्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे।। ___ यह सुनकर प्रदेशी राजा ने अंधकार रूपी रज को झाड़ डाला। गुरु के उपदेश रूपी शस्त्र से मिथ्यात्व के बन्धन छिन्न कर दिये। नास्तिकता का त्यागकर तथा सम्यक्त्व को स्वीकार करके श्रावक के बारह व्रतों को स्वीकार किया। फिर राजा ने कहा - हे मंत्री! तुम भी सम्यक्त्व रूपी धर्म ग्रहण करो। तब मंत्री ने कहा - हे राजन्! मैंने इन्हीं गुरु के पास श्रावस्तीनगरी में धर्म स्वीकार कर लिया है। आपको बोध कराने के लिए ही मैंने इन गुरु को यहाँ पर बुलाया था। यह सुनकर राजा ने मंत्री से कहा - मंत्रीवर! तब तो तुम मेरे धर्म-बन्धु हो। अथवा गुरु का दर्शन करवाने से तुम मेरे गुरु भी हो। हे मंत्री! तुम मेरी धर्म-प्रवृत्ति के हेतु रूपी कर्ता हो। ___ तब वह प्रदेशी राजा परम-श्रावक बन गया। उसके प्रबोध से सम्पूर्ण राज्य आर्हती बन गया। उस देश में अरिहंत धर्म का एकछत्र साम्राज्य फैल गया। मन्त्री के मनोरथ रूपी महा तरुवर में फल आये। संपूर्ण देश की भूमि को अरिहन्त चैत्य करवाकर भर दिया गया। सभी जगह महा-प्रभावनापूर्वक रथ-यात्रा करवायी गयी। साधुओं की पूजा होने लगी। साधर्मिक जनों की भक्ति होने लगी। राजा स्वयं अन्य-अन्य को बोध देकर धर्म: लगा। गुरु के अभाव में भी गुरु की तरह धर्म देशना देने लगा। ब्रह्मचर्य व्रत को चाहने की इच्छा से विषयों को विष की तरह मानने लगा। चारित्र के इच्छुक की तरह चारित्र की प्रशंसा करने लगा। राजा की प्रिया सूर्यकान्ता ने काम से पीड़ित होकर विचार किया कि यह राजा तो धार्मिक होने से ब्रह्मचर्य धारी बन गया है। इस राजा के जीते जी मैं अन्य पुरुष के साथ भोगों में रमण करने में समर्थ नहीं हूँ। अतः विष आदि किसी उपाय द्वारा मैं इसे मार दूं। फिर अपने पुत्र सूर्यकान्त को राज्य पर स्थापित करके मैं यथेच्छापूर्वक वैषयिक सुख में रमण करूँगी। उस पतिहंता, क्रूर, पापिनी ने राजा को पौषधोपवास के पारणे के दिन आहार के अन्दर विष दे दिया। विष के आवेग से महाताप उत्पन्न होने पर राजा प्रदेशी जान गया कि मुझे सुर्यकान्ता महारानी ने विष दिया है। तब राजा ने मन्त्री को बुलाकर विष की विक्रिया कही। मन्त्री मन्त्र-औषध आदि उपचार करवाने लगा। तब राजा ने कहा - हे मन्त्रीवर! मेरी मृत्यु समीप है। अतः धर्म रूपी औषधि कराओ। शीघ्र ही संसार के तारक गुरु को बुलाओ। मन्त्री ने कहा - राजन्! अभी यहाँ कोई गुरु नहीं है। राजा ने कहा - तब तुम ही मेरे गुरु हो। गुरु द्वारा करायी जानेवाली क्रियाएँ करवाओ। तब उस गीतार्थ महामन्त्री ने जिनबिम्ब के दर्शन करवाये। देवों 253
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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