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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् केशी गणधर प्रदेशी राजा की कथा उन दोनों का तोल मान एक ही था। हवा भरने अथवा खाली करने पर भी उसके तोल मान में हीनाधिकता नहीं हुई। स्पर्श से ज्ञात होने वाली रूपी हवा का भी कोई वजन नहीं होता, तो फिर अमूर्त जीव के तोलने पर उसका वजन-मान कैसे हो सकता है? मैंने एक बार एक शंखवादक पुरुष को कुम्भी में बिठाकर उसका द्वार बन्द करके उस पर लाख का लेप लगा दिया. फिर उसने अन्दर से शंख बजाया। छिद्र न होने पर भी उसके शंख की ध्वनि बाहर निकल गयी। तो जीव तो ध्वनि से भी सूक्ष्म है, फिर वह बन्द कुंभी में से गमनागमन क्यों नहीं कर सकता? इसलिए सभी शरीरधारियों के देह से अतिरिक्त यह जीव आत्मा है, जो स्व-ज्ञान के अनुभव का प्रत्यक्ष विषय है। जैसे - पताका के हिलने से हवा का ज्ञान होता है, हे राजन्! वैसे ही चैतन्य का भी ज्ञान, गति आदि चेष्टाओं के चिह्न से जानना चाहिए। जीव के होने पर उसकी परलोक गम्यता भी जाननी चाहिए। हे राजेन्द्र! धर्म-अधर्म का उदभव होने पर स्वर्गव नरक लोक में उसका गमन भी जानना चाहिए। स्वर्ग से तम्हारी माता नहीं आयी (हे राजन! इसका कारण यह है कि सुन्दर स्वर्ग में देव नैसर्गिक सुख का अनुभव करते हैं। वे प्रेम के पाश के वश में रहे हुए कर्त्तव्य में स्वतन्त्र होते हैं। नाटक आदि देखने में आसक्त हो जाने से उनके यहाँ नहीं आने का प्रयोजन समाप्त ही हो जाता है। तिर्यग् लोक की दुर्गन्ध आदि के कारण सिर्फ अरिहंत के कल्याणक को छोड़कर कदाचित भी यहाँ आना नहीं चाहते। जैसे कि अद्भुत श्रृंगारवाले, दिव्य विलेपन आदि किये हुए नर भी दुर्गन्धयुक्त अशुचि स्थान में नही जाते हैं। तुम्हारे पिता भी वापस तुम्हे बताने के लिए नहीं आये। इसका कारण यह है कि वे नरक की व्यथा को वेद रहे हैं। परमाधार्मिक देवों द्वारा पकड़े हुए वे यहाँ आने में समर्थ नहीं है। जैसे कोई अपराधी निग्रह करने के लिए पकड़कर बैठाया गया है। वह अपने स्वजनों को अनुशासित करने के लिए आरक्षकों से छूटकर जाने में समर्थ नही है। अतः हे राजा! इसी प्रकार स्वर्ग व नरक की स्थिती है। धर्म व अधर्म के क्षय से मोक्ष होता है, यह जानो। मोहित मत बनो। यह सुनकर महाराज का रोम-रोमांचित हो गया। कर कमलों को मस्तक पर लगाकर भक्तिपूर्वक गुरु से कहा - स्वामी! मेरा प्रबल मोह रूपी पिशाच आज नष्ट हो गया है। आप जैसे मांत्रिक की मन्त्र रूपी वाणी से आज वह पिशाच ताडित हुआ। अज्ञान तिमिर से आक्रान्त मेरे अन्तर-लोचन प्रभु की व्याख्या रूपी अंजन शलाका से उद्घाटित हुए हैं। हे स्वामी! मैंने जान लिया है कि - धर्मो जैनधर्मात् परो न हि । यथा आदित्यात् परो नान्यः प्रत्यक्षस्तेजसां निधिः । जैसे सूर्य से परे अन्य कोई तेज की निधि नहीं है, वैसे ही जैन-धर्म से परे अन्य कोई धर्म नहीं है। लेकिन मेरी नास्तिकता क्रमानुगत है। अतः हे स्वामी! सहसा कैसे छोड़ दे? स्वजनों से लज्जा महसूस होती है। गुरु ने कहा - हे राजन्! क्या परम्परा से आयी हुई दरिद्रता, मान्दता, मूर्खता आदि पुरुषों द्वारा नहीं छोड़ी जाती? यह पिता का कुआँ है - इस प्रकार मूद मन वाले होकर क्या विवेकी भी उसी कुएँ का पानी खारा होने पर भी पीते हैं। अगर इस अवसर पर भी हे राजन्! तुम धर्म को स्वीकार नहीं करोगे, तो बाद में जड़बुद्धि वाले कुशलवित्त की तरह पछताओगे। उसकी कहानी इस प्रकार है - कौशलापुरी में चार मित्र थे। धनोपार्जन करने के लिए वे लोग देशान्तर को रवाना हुए। शीघ्र ही लोह की खान आने पर सभी ने कुशों को ग्रहण किये। वर्षा काल का आरम्भ होने पर यह मूल्यवान् होने पर लाभ प्राप्त करायेगा। आगे से आये हुए एक व्यापारी ने उनको कहा - कुश का क्या करोगे? आगे चाँदी की खान है। तब उन्होंने कुश को छोड़ दिया व रजत की खान में गये। देय व उपादेय को जानने वाले उन्होंने वहाँ से चाँदी ग्रहण की। आगे 252
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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