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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सद्गुरु का वर्णन देता है, वह शिष्य की चोटी ग्रहणकर खुश तो होता है, पर वह गुरु उस शिष्य का वैरी है। वह गुरु उस शिष्य का दुश्मन है, इसमें कोई शक नहीं है। जैसे मनुष्य जीमण प्राप्तकर खुश होता है वैसे ही वह गुरु शिष्य की चोटी लेकर खुश होता है। जिसका सत्य संशय के लिए अनिच्छिन्न है, वह गुरु सुदेव, सुधर्म, सुगुरु रूप तीनों रत्न सुपरीक्षित शिष्य को देता है।।३९।।१५३।। अब रत्न त्रय के स्वरूप को कहते हैं - सुज्जि धम्मु सचराचरजीवहंदयसहिउ । सो गुरु जो घरघरणिसुरयसंगमरहिउ । . इंदियविसयकसाइहिं देउज्जुमुक्कमलु ।। एहु लेहु रयणत्तउ चिन्तियदिनफलु ॥४०॥ (१५४) संपूर्ण जगत के जीवों पर करुणा व दया का भाव रखने वाला सुज्ञ धर्म सुधर्म है। घर, स्त्री व मैथुन के संगम से रहित जो है, वे सुगुरु हैं तथा इन्द्रिय विषय तथा कषाय का संपूर्ण त्याग करके जो सिद्ध होने वाले हैं, वे अरिहन्त देव सुदेव हैं॥४०॥१५४॥ ये रत्न त्रय कैसे जानने चाहिए। इसी को कहते हैं। देवं गुरुं च धम्म च भवसायरतारयं । गुरुणा सुप्पसलेण जणो जाणइ निच्छियं ॥४१॥ (१५५) भव सागर से तारनेवाले देव, गुरु व धर्म को सुप्रसन्न गुरु द्वारा मनुष्य निश्चित ही जान लेता है।।४१॥१५५।। अब प्रकारान्तर से पुनः गुरु के ही स्वरूप को कहते हैं। धम्मन्नु थम्मकत्ता य सया धम्मपरायणो। सत्ताणे धम्मसत्थत्थ देसओ भन्लए गुरु ॥४२॥ (१५६) धर्म को जाननेवाले तथा धर्म का आचरण करनेवाले सर्वकाल में धर्म परायण होते हैं। द्रष्टा की अपेक्षा केवल कदाचित् ही नहीं होते, बल्कि हमेशा होते हैं। गुरु प्राणियों को धर्मशास्त्र के अर्थ देश से कथन करते हैं।।४२।।१५६॥ उन्हीं गुरु के गुणों का वर्णनकर उनकी ही महत्ता को बताते हैं - तं सुगुरुसुद्धदेसणमंतक्खरकन्नजावमाहप्पं । जं मिच्छविसपसुत्तावि केइ पावंति सुहबोहं ॥४३॥ (१५७) वे गुरु छोटे से लगाकर बड़े तक को मंत्राक्षर रूप शुद्ध देशना देते हैं, जिससे कितने ही आसन्न-सिद्धिक आदि, जो मिथ्यात्व विष में सोये हुए बेसुध बने हुए हैं, सुखपूर्वक बोध को प्राप्त करते हैं।।४३।।१५७।। सग्गाऽपवग्गमगं मग्गंताणं अमग्गलग्गाणं ।। दुग्गे भयकंतारे नराण नित्थारया गुरुणो ॥४४॥ (१५८) स्वर्ग-अपवर्ग के मार्ग को खोजने में लगे हुए, अमार्ग में लगे हुए लोगों को भव-कानन से निस्तारण करने वाले गुरु ही है।।४४॥१५८॥ और भी - अन्नाणनिरंतर - तिमिरपूरपरिपूरियंमि भवभयणे । को पपडेइ पयत्थे जइ गुरुदीया न दीप्पंति ॥४५॥ (१५९) निरंतर अज्ञान तिमिर से परिपूरित भव रूपी भवन में गुरु रूपी दीपक के बिना कौन प्रशस्त मार्ग प्रकट कर 248
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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