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सद्गुरु का वर्णन
सम्यक्त्व प्रकरणम् लोगों के बिना जाने उस नगर में प्रवेश किया। मुनियों ने पुनः उस क्षुल्लक की अखिल क्रिया बतायी। तब उस पात्र के भरकर आकाश मार्ग से आने पर गुरु ने अन्तराल में एक महाशिला की रचना कर दी। फूटे हुए जहाज की तरह वह पात्र भी फूट गया तथा उसमें रहा हुआ अन्न आदि सभी कौओं की बलि बन गया। यह कहीं से भी सुनकर उस क्षुल्लक ने भिक्षुओं से कहा - हे भद्रों! मेरे गुरु आ गये हैं, क्योंकि अन्य किसी की इस प्रकार की शक्ति नहीं है। तब वह तत्क्षण द्रुत गति से वहाँ से पलायन कर गया। क्योंकि -
येनोदयास्थिते भानौ नान्यत् तेजो विजृम्भते ।। सूर्य के तेज के रहने पर अन्य तेज प्रकाशित नहीं होते।
तब गुरु दूसरे दिन नगर में रहे हुए साधुओं से समन्वित संपूर्ण तारों के मध्य परिस्कृत चन्द्रमा की तरह आर्हत् चैत्यो को वन्दन करके बौद्ध आयतन में आये भिक्षुओं ने भी कहा - आदर पूर्वक इन बुद्ध को वन्दन करो। गुरु ने भी आगे आकर बुद्ध के प्रति कहा - आओ! आओ! हे वत्स! मेरे पैरों में गिरो, बुद्ध! तब उस बुद्ध की मूर्ति ने शीघ्र ही आकर गुरु को नमन किया। गुरु ने भी उस मूर्ति की पीठ पर शिष्य की तरह प्रसन्न होकर हाथ रखा। फिर आगे रहे हुए स्तूप से कहा-अरे! तुम क्यों नहीं वन्दना करते? शीघ्र ही वह स्तूप भी आकर गुरु के चरणों में झुक गया। पुनः गुरु ने कहा – ठहरो! धनुष की कमान के समान वह वहीं ठहर गया। सिद्ध वचनों द्वारा वह आज भी वहीं और वैसे ही है। गुरु ने बुद्ध को भी कहा - वत्स! तुम भी अपने स्थान पर चले जाओ। वह मूर्ति भी पास में जाकर अपने स्थान पर खड़ी हो गयी। निर्ग्रन्थ द्वारा उस मूर्ति को झुकाये जाने के कारण तब से उस मूर्ति का नाम निर्ग्रन्थ-नामित सर्वत्र ख्यात हो गया। फिर सभी लोगों ने विस्मय से दीर्घ हुए लोचनों द्वारा गुरु की प्रशंसा की तथा जिन शासन में रंजित हुए। अहो! आश्चर्य! घोर आश्चर्य! आर्य खपुट गुरु को अजंगम देवता भी भक्ति नम अंगो द्वारा वन्दना करते हैं इत्यादि अनेक अतिशय एकान्त रूप से भावित हुए। यह समस्त जगत् मानो जिनधर्ममय हो गया।
इस प्रकार आर्यखपुट नामक आचार्य ने जिनशासन की महती प्रभावना की। आज भी तीन लोको की रंगभूमि पर उनकी विविध व अवदात प्रशंसा-कीर्ति नृत्य करती है। प्रभावना में आर्यखपुटाचार्य की कथा पूर्ण हुई।।३४ से ३७॥१४८ से १५१।।
अब गुरु के गुणों का अन्वेषण क्यों किया जाता है? उसे बताते हैंबूढो गणहरसद्दो गोयमाईहिं धीरपुरुसेहिं ।
जो तं ठवइ अपत्ते जाणंतो सो महापायो ॥३८॥ (१५२)
गणधर शब्द गौतम आदि धीरपुरुषों के लिए कहा गया है। जो उस शब्द को खुद पर स्थापित करता है, [अपने आपको गणधर समान मानता है| उसे महापापी समझना चाहिए।।३८॥१५२।।
अयोग्य स्थापना को अयोग्य व्यक्ति को आचार्य पद पर स्थापन करने के विषय को आश्रित करके दोष कहा गया है। अब असद् देशना को आश्रित करके कहते हैं।
तिलि यि रयणइं देइ गुरु सुपरिक्खियइं न जस्स । सीसहसीसु हरंतु जिह सो गुरु यहरि उ तस्स । सो गुरु वहरि उ तस्स इत्थ संदेहु न किज्जड़ । सीसहसीसु हरंतु जेम्वनरु नरह भणिज्जड़ । सुपरिक्खियइं न जस्स सच्च संसउ मणिच्छिन्नि वि । देइ सुदेवु-सुधम्मु-सुगुरु गुरुरयणंइ तिन्नि वि ॥३९॥१५३॥ जो गुरु शिष्य की अच्छी तरह परीक्षा न करके सुपरीक्षित सुदेव, सुगुरु, सुधर्म रूपी तीन रत्न, शिष्य को
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