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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् आचार्य के छत्तीस गुण व्वीलए - लज्जा आदि से अतिचारों को छिपाते हुए को उपदेश विशेष से विगत लज्जा वाला बनाना । क्योंकि वह आलोचक का अत्यन्त उपकारक होता है। पकुव्वी - आलोचित को प्रकर्ष प्रायश्चित्त देकर शुद्धि करवाता है। ऐसे स्वभाव वाला होने से प्रकुर्वी कहा जाता है। निज्जव - निर्यापक अर्थात् आलोचक जैसा निर्वहन कर सकता है, वैसा ही प्रायश्चित्त करवाता है। अवायदंसी - सातिचारवालों को दुर्लभ बोधी आदि अपायों को दर्शाने ने अपायदर्शी है। अपरिस्सावी - आलोचक के कहे हुए अकृत्य को अन्य को नहीं बताने से वह अपरिस्सावी होता है। इन गुणों से रहित आलोचना देनेवाला आलोचको को लाघवकारी बनानेवाला जानना चाहिए। इस तरह का प्रायश्चित्त इस प्रकार है - आलोयणपडिक्कमणे मीसाविवेगे तहा वि उसग्गे । ओघ. नि. गा. १४ १८ ) - तवछेयमूलअट्ठयाय पारंचिए चेव ॥१॥ ( पञ्चाशक १६ गाथा. २ आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, काउसग्ग, तप, छेद, मूल, अर्थजात, पाराञ्चिक ये प्रायश्चित के दस भेद है ||३०|| १४४ ।। ये सभी मिलकर आचार्य के ३६ गुण होते हैं। तथा तृतीय ३६ गुण आयाराई अट्ठ उ तह चेव य दसविहो य ठिकप्पो । - बारस तय छावस्सग सूरिगुणा हुंति छत्तीसं ॥ ३१॥ (१४५) आचारादि सम्पदा आठ प्रकार की (जो पहले कही जा चुकी है), तथा दस प्रकार का स्थितकल्प, बारह प्रकार का तप, छः आवश्यक - ये छत्तीस गुण भी आचार्य के होते हैं। दस प्रकार का स्थितकल्प इस प्रकार हैआचेलकुद्देसिय-सिज्जायर - रायपिंड - किइकम्मे । वयजिट्ट पडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्ये ॥ अचेलक, उद्देशक, शय्यातर, राजपिंड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासकल्प तथा पर्युषणा - ये दस प्रकार के स्थिती कल्प है ।। ३१ ।। १४५ ।। तथा - चतुर्थ ३६ गुण विगहा कसाय सन्ना पिंडो उवसग्गज्झाण सामइयं । भासा धम्मो ए ए सूरिगुणा हुंति छत्तीसं ॥ ३२ ॥ (१४६) विकथा चार प्रकार की है - स्त्री कथा, भक्त कथा, देश कथा तथा राज कथा । संज्ञा भी चार है - आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा तथा परिग्रह संज्ञा । पिंड चार प्रकार का है - आहार, शय्या, वस्त्र और पात्र । उपसर्ग - देव, मनुष्य, तिर्यंच द्वारा तथा आत्म-संवेदनीय रूप । यहाँ आत्म संवेदना का मतलब सिर - पेर आदि को पीड़ा पहुँचाने के समय की स्खलना होना है। ध्यान - आर्त्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान । सामायिक - सम्यक्त्व, श्रुत, देशविरति तथा सर्वविरति रूप सामायिक । भाषा - सत्य भाषा, असत्य भाषा, मिश्र भाषा तथा व्यवहार भाषा । यहाँ सत्य का मतलब "आत्मा है" इत्यादि है । असत्य का अर्थ आत्मा नहीं है। मिश्र का अर्थ उभय रूप है। जैसे- नहीं जानते हुए भी "इस नगर में दस पुत्र मर गये" इस प्रकार बोलना । व्यवहार भाषा का अर्थ है - असत्य अमृषा । जैसे आमन्त्रण अर्थ में 242 -
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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