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सम्यक्त्व प्रकरणम्
मान पिण्ड की कथा
क्लेशेऽपि स्वप्रतिज्ञातं किमुज्झन्ति मनस्विनः । मनस्वी जन क्लेश होने पर भी क्या अपनी प्रतिज्ञा का त्याग करते हैं ? मुनि के शाप से शीघ्र ही उसकी पुत्री भी मर गयी। क्योंकि - उदग्रतपसां शापो निःफलः स्यान्न जातु यत् । उग्र तपस्वी का शाप कभी निष्फल नहीं जाता।
तीसरे महीने में भी मुनि पुनः शाप देने के लिए निकले। यह सुनकर द्वारपाल ने भयातुर होते हुए स्वामी से कहा-दान नहीं देने से कुपित हुए साधु के शाप से ही घर में दो जनों की मृत्यु हुई है। अतः हे स्वामी! इन्हें संतुष्ट कीजिए। अभी भी ये इसी प्रकार का शाप देकर वापस जा रहे हैं कि "इस प्रकार का कार्य पुनः अधम से भी अधम तुम्हारे घर में हो।"
तब उस गृहस्थ ने पत्नी सहित दौड़कर उन्हें प्रणाम करके भक्ति वाक्यों द्वारा पानी से अग्नि की तरह मुनि को शान्त किया। फिर घर लाकर साधु को उनके क्रोध का सामर्थ्य देखकर डरते हुए उन्हें यथेच्छित घेवरों से लाभान्वित किया। इस प्रकार से मुनि द्वारा प्राप्त आहार क्रोध पिण्ड कहलाता है। इस प्रकार का क्रोध अनर्थ समूह का एक अंकुर रूप है। संसार समुद्र को बढ़ानेवाला पूर्णचन्द्र है। अतः साधु को क्रोधपिण्ड नहीं कल्पता है।
इस प्रकार क्रोधपिण्ड का कथानक समाप्त हुआ। अब मान पिण्ड पर कथा कही जाती है -
संपूर्ण संसार को भोजन कराने वाली लब्धि से युक्त ख्याति वाले, क्षमानिधि गुणाधार रूपी गुरु के भी गुरु, गुणप्रिय, गुणसूरि नामक आचार्य हुए हैं। उनके परिवार में पाँचसो साधु थे, जो गुण समूहों द्वारा एक से बढ़कर एक थे। उन गुरु के बहुत सारे क्षुल्लक शिष्य भी थे। वे सभी एक जगह रहकर एक दूसरे से आगे रह-रहकर अध्ययन करते थे। उनमें एक क्षुल्लक मान से विह्वल वाचाल था। वाग्लब्धि के कारण वह दूसरे को भी जीतकर मान रूपी हाथी पर क्षणभर में चढ़ जाता था। एक दिन उस मानी ने क्षुल्लक मंडल के मध्य में कहा - तुम सब में कोई भी मेरे समान लब्धिवाला नहीं है। अन्य क्षुल्लकों ने कहा - यदि ऐसा है! तुम लब्धि से गर्वित हो, तो हम को विश्वास दिलाने के लिए तुम किसी भी लब्धि को दिखाओ। आज घर-घर में खाने के लिए सर्वत्र अमृत के स्वाद के समान खाण्ड व शक्कर से युक्त सेव का भोजन पकाया गया है। अतः किसी भी तरह से तुम सबसे बड़े पात्र को उससे भरकर हमारे भोजन के लिए ले आओ, तो हम तुम्हारी लब्धि मान लेंगे।
वह क्षुल्लक भी भूमि पर हाथ मारकर वीर की तरह उठ खड़ा हुआ। अगर मैं नहीं लाया तो, मेरे जैसा नहीं - इस प्रकार बोलता हुआ शीघ्र ही मान में उड़ते हुए शरीर वाला वह किसी श्रीमन्त के घर पहुँचा वहाँ उस भोजन को काष्ठ पात्र में भरने के लिए उग्र पूर की तरह उसने खाण्ड के थाल तथा घृत की थाली को देखा। गृहस्वामिनी ने उस क्षुल्लक को देखकर कुपित होते हुए कहा - अरे क्षुल्लक! तुम्हें किसने बुलाया? चलो। चलो। उस क्षुल्लक ने कहा - भद्रे! क्या तुम दान धर्म नहीं जानती? क्योंकि -
दानेनैव हि भोगानां जन्तुर्भवति भाजनम् । दान से ही प्राणी भोगों का भाजन बनता है।
अतः तुम मुझे भोजन दो, तुम्हें धर्म होगा। मेरा अपमान करके तुम अपनी लघुता मत करो। उस गृहिणी ने क्रोध पूर्वक कहा - तुमसे मेरा लाघव कैसे होगा? अच्छा है कि मैं कौवों और कुत्तो को दे दूँगी, पर तुम्हें नहीं दूंगी। क्षुल्लक ने भी मानपूर्वक कहा - हे शुभे! ठीक है। अगर मैं कुछ हूँ तो भविष्य में तुम्हारे घर से हठपूर्वक भी यह भोजन लेकर ही जाऊँगा। यह कहकर बाहर निकलकर उसने किसी पुरुष को पूछा - हे भद्र! यह किसका घर है?
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