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________________ क्रोध पिण्ड की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् ७. क्रोध। ८. मान। ९. माया तथा १०. लोभ से प्राप्त पिण्ड क्रमशः क्रोध, मान, माया व लोभ पिण्ड नामक दोष हैं। इनमें किस प्रकार से दोष होता है, यह कथानकों द्वारा समझना चाहिए। वे इस प्रकार हैं। पहले क्रोध पिण्ड पर की कथा को कहते हैं - शुद्ध सिद्धान्त से बुद्ध अपनी मर्यादा में विहार करनेवाले ५०० साधुओं से युक्त सुस्थित नामक आचार्य थे। उनके एक शिष्य हुए, जो स्वच्छ बुद्धि से साधु के शुद्ध गुणों से युक्त तपविधि में डूबे हुए, प्रगाढ ओज से संपन्न गच्छ के भूषण रूप थे। वे महासत्त्वशाली, इन्द्रियों को वश में करके, अपने शरीर में भी निस्स्पृह, चारित्र महाराज के जंगम प्रासाद के समान थे। सकल साधु के आचार में कुशल, गीतार्थ, अनुपम श्रुतज्ञान के निधान कलश थे। सुदर्शन धारी, क्षमाधारी मुनियों के मध्य राजा के समान सज्जनों को आनंदित करनेवाले विष्णु के समान श्वेत वस्त्रधारी रहते थे। एक बार अत्यधिक वीर्य संपन्नता द्वारा तप करने के लिए उन्होंने तप - प्रिय आचार्य के पास एकाकी चर्या के लिए आज्ञा प्राप्त की। गच्छवास में रहकर मन इच्छित उस प्रकार की तपस्या अन्य-अन्य वचन श्रुति से सम्पादित नहीं होती। अतः एकाकी विहार से पृथ्वी-तल पर विचरते हुए जिनकल्प की भावना को शुद्धात्मा रूप से भाते हुए अकेले भी अनेक दुष्कर्मों रूप अराति को हर रोज जीतने की इच्छा से उन महर्षि ने महातीक्ष्ण तप रूपी शस्त्र को ग्रहण कर किया। एक मासक्षमण के पारणे दूसरा मासक्षमण करना प्रारंभ किया। उस पारणे में भी प्रथम घर में जो मिलता था, वहीं लेते थे। अन्यत्र नहीं जाते थे। अगर प्रथम घर में भिक्षा नहीं मिलती थी, तो बिना पारणे के पुनः मासक्षमण कर लेते थे। ____एक बार किसी नगर में किसी श्रीमन्त के घर में भिक्षा के समय मासखमण के पारणे की भिक्षा लेने वे मुनि गये। उस दिन उस गृहस्थ के घर में उनके मृत पुत्र का मासिक दिन था। अतः ब्राह्मण आदि को देने के लिए गृहिणी द्वारा बहुत सारी थालियाँ की माला घेवर से परिपूर्ण घर में तैयार की गयी थी। तब वे मासखमण के तपस्वी वहाँ गये। उन्हें देखकर उस गृहिणी ने भारी दानान्तराय कर्म के उदय से कुबुद्धि वाली ने कहा - देव! अभी तक ब्राह्मणों की अर्चा नहीं की गयी है। आप पहले ही आ गये हैं। अतः वापस भेजती हूँ। हे व्रती! आप चले जायें। इन्द्रियों द्वारा निमन्त्रित क्षुधा के उदय से मुनि का मन हुआ कि वे स्वयं ही जाकर वे घेवर ले लेवें। पर उस ग्रहिणी ने वैरी की तरह मुनीश्वर को अपमानित कर दिया। महामोह रूपी क्रोधयोधा ने क्षण भर में आक्रमण कर दिया। प्रायः क्रोध तपस्वियों की निकटता को नहीं छोड़ता है। भूत की तरह छल को प्राप्तकर शीघ्र ही वह अधिष्ठित हो जाता है। तब महामुनि ने लौटते हुए क्रुध होकर शाप दिया-हे दुरात्मिके! तुम यही उत्सव फिर प्राप्त करोगी। इस प्रकार कहकर अपने स्थान पर जाकर बिना पारणा किये कोप से कुपित होते हुए पुनः मासखमण प्रारंभ कर दिया। उस गृहिणी के घर में उस मुनि के शाप से उसका छोटा भाई उसी दिन मर गया। क्योंकि - तपस्तेजो हि दुःसहम् । तप का तेज अति दुःसह्य होता है। तब उसने अति खेदपूर्वक अपने अनुज के वियोग से पुनः उसी प्रकार मास के अन्त में मासिक दिन प्रारम्भ किया। उसी दिन उन मुनि का दूसरा मासखमण भी पूर्ण हुआ। उसी घर में मुनि पुनः पारणे के लिए गये। उस गृहिणी द्वारा उस दिन भी बिना कुछ दिये ही भेज दिया गया। जाते-जाते फिर मुनि ने मन ही मन में वही शाप दिया। क्षुधात होते हुए भी पुनः तीसरा मासखमण शुरु कर दिया। कहा भी है - - 225
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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