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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् साधुतत्त्व अब प्रश्न उठता है कि प्रथम व्रत की विराधना के कथन में छः काय के जीवों की विराधना का भी समावेश हो जाता है। फिर अलग से क्यों कहा गया है? तो यह सत्य ही है। परलोक (अन्य धर्मवालों में) में पृथ्वी आदि में जीव अप्रसिद्ध है। अतः उसकी सिद्धि के लिए विशेष रूप से कथन किया गया है। अकल्प दो प्रकार का है - शिक्षक स्थापना कल्प तथा अकल्प स्थापना कल्प। उसमें पहला इस प्रकार हैअणहीया खलु जेणं पिंडेसणसिज्जवत्थ पाएसा । तेणाणि याणि जइणो कप्पंति न पिंडमाईणि ॥१॥ उउबद्धम्मि न अनला' वासावासासु दो वि नो सेहो । दिक्खिज्जती सेहट्ठवणाकप्पो इमो होइ ॥२॥ जो पिंडेषणा अनधीत है, नहीं पढ़ा है उसके हाथ का पिंड शय्या, वस्त्र, पात्र आदि साधु को नहीं कल्पता अकल्पस्थापना कल्प तो स्वयं ही कहेंगे। इसके विपर्यय का सेवन करने से तो दोष है। गृहस्थ का भाजन थाली आदि है। उसमें खाते हुए जो दोष है, उसे कहते हैं - कंसेसु कंसपाएसु कुंडमोएसु वा पुणो । भंजतो असणपाणाडं आयारा परिभस्सइ ॥१॥ (दशवै. अध्य.६ गा. ५१) कांसी के थाल, कांसी की कटोरी, कुंडी आदि मिट्टि के बर्तन अथवा हाथी के पग के आकार का कुंदमोद कंडे में इस प्रकार गहस्थ के बर्तन में अशन - पान आदि को करता हआ साध आचार से परिभ्रष्ट होता ___पलंग - आदि के सछिद्र होने से उस पर सोना या बैठना साधु को अकल्पनीय है। उपलक्षण से (माँचा) मञ्च आदि भी जान लेना चाहिए। सिद्धान्त की भाषा में निषद्या का मतलब भिक्षा के लिए गये हुए साधु के बैठने की क्रिया है और वह कल्पनीय नहीं है। स्नान तथा उपलक्षण से उबटन भी देश से अथवा सर्व से कल्पनीय नहीं है। कहा भी गया है - वाहीओ वा अरोगी वा सिणाणं जो उ पत्थए । वुक्कंतो होइ आयारो जढो हवइ संजमो ॥१॥ (दशवै. अध्य. ६ गा. ६०) व्याधि से पीड़ित हो अथवा रोग रहित हो, वो मुनि अगर स्नान की इच्छा करता हैं, तो संयम की विराधना से आचार से भ्रष्ट होता है। यहाँ उपलक्षण से स्नान के साथ शौच अर्थात् विभूषा, दन्त शौच, नख-काटना, रोमकल्पन, केश संवारना, अकाल में वस्त्र धोना आदि भी शामिल हैं। . इनका भी विवर्जन करना चाहिए। अविवर्जन में दोष है। कहा भी गया है - निगिणस्स वावि मुंडस्स दीहरोमनहंसिणो । मेहुणा उवसंतस्स किं विभूसाइ कारियं ॥१॥ विभूसा वत्तियं भिक्खू कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे घोरे जेणं भमइ दुरुत्तरे ॥२॥ (दशवै. अध्व. ६ गा. ६४, ६५) साधु नग्न हो अथवा मस्तक मुंडाये हुए हो, जिसके लम्बे बाल या नख हो, (इसका अर्थ यह है कि जिनकल्पी के बिल्कुल कपड़े नहीं होते, स्थविर कल्पी को परिमाण वाले वस्त्र होते है।) जिनके मैथुन उपशान्त 1. अनला अयोग्यत्वेन निषिद्धा नपुंसकादयः। 222
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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