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________________ साधुतत्त्व सम्यक्त्व प्रकरणम् जो कहा गया है - नाणस्स होइ भागी थिरयओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥ (विशेषा. भा. गा. ३४५९. एकादश पंचा. गा. १६) छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखवणेहिं ।। अकरितो गुरुवयणं अणंतसंसारिओ होइ ॥२॥ (पञ्चमपंचाशके ४६) गुरुकुलवास में रहने से ज्ञान का भागी होता है। दर्शन व चारित्र में स्थिरतर होता है। जो यावत्कथ (जीवनभर) गुरुकुल वास को नहीं छोड़ता है, वह धन्य है। बेला, तेला, चौला, पंचोला, पखवाड़ा या मास-मासखमण की तपस्या करके भी जो गुरुवचन को नहीं करता है, वह अनंत संसारी होता है।४५।।११३।। अब प्रस्तुत अर्थ के समर्थन होने पर अभीष्ट देवता की स्तुति युक्त संबोधन द्वारा मध्य मंगल को प्रकट करते हुए मुग्धजन के प्रवाद का तिरस्कार करते हुए कहते हैं - सव्यस्थ अत्थि थम्मो जा मुणियं जिण! न सासणं तुम्ह ।। कणगाउराण कणगं य ससियपयमलभमाणाणं ॥४६॥ (११४) हे जिनेश्वर! आपका शासन व धर्म सर्वत्र है, पर जैसे धतूरा खाये हुए व्यक्ति को शक्कर युक्त दूध पीला दीखायी देता है, वैसे ही जो तुम्हारे शासन में नहीं है अर्थात् तुम्हारी आज्ञा में नहीं है, उन्हें सभी सोना भी पीतल के समान ही लगता है।४६।११४।।। इस प्रकार श्री चक्रेश्वर सूरि द्वारा प्रारम्भ तथा उनके प्रशिष्य श्री तिलकाचार्य द्वारा निर्वाहित सम्यक्त्व वृत्ति में तीसरा मार्ग तत्त्व समाप्त हुआ। ||४|| साधु तत्त्व ।। मार्ग तत्त्व की व्याख्या कर दी गयी है। अब मूल द्वार गाथा के क्रम से प्राप्त हुआ तत्त्व का वर्णन करते हैं। यह इसका पूर्व विषय से सम्बन्ध है। पूर्व में मार्गतत्त्व कहा गया और वह साधुओं द्वारा आवेदित है। अतः साधुतत्त्व को कहते हैं। उसकी आदि गाथा इस प्रकार है - अट्ठारस जे दोसा आयारकहाइ यन्निया सुत्ते । ते वजंतो साहू पन्नत्तो वीयरागेहिं ॥१॥ (११५) सिद्धान्त में अथवा आचार कथा में साधु आचार की विचारणा में दशवकालिक के छठे अध्ययन के रूप में जो अट्ठारह दोष कहे गये हैं, वे वीतराग द्वारा प्रज्ञप्त हैं, अतः साधु उनका त्याग करे।।१।।११५।। वे अट्ठारह दोष कौन से हैं? तो कहते हैं - पढमं ययाण छक्कं कायछक्कं अकप्पगिहिभायणं । पलियंक निसिज्ज वि य सिणाणसोहविवज्जणयं ॥२॥ (११६) प्रथम छ व्रत, छ काय की रक्षा, अकल्प, गृहस्थ का भाजन, पलंग, निषधा, स्नान एवं विभूषा का वर्जन करना चाहिए। प्रथम पञ्च महाव्रत तथा रात्रि भोजन विरमण व्रत रूपी छट्ठा व्रत है। यहाँ कथन की विशेष प्रतिपत्ति है। यह व्रतों की विराधना आदि दोषरूप जानना चाहिए। इसी प्रकार छः काय - पृथ्वी आदि रूप छः काय की विराधना 221
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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