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सम्यक्त्व प्रकरणम्
वज्र स्वामी की कथा
ये साधर्मिकवात्सल्ये स्वाध्याये संयमेऽपि च । तीर्थ प्रभावनायां च प्रयतास्तान समद्धरेत ॥
जो साधर्मिक वात्सल्य में, स्वाध्याय में और संयम में निमन हैं, और तीर्थ प्रभावना में प्रयत्नवान् है तो उनका भी उद्धार करें।
श्रुत के इस वचन का विचारकर उसे भी पट पर आरोपित किया। कृत्य-अकृत्य को जाननेवाले विवेकी रूप वाले प्रभु के लिए क्या कहा जाय? प्रभु के प्रभाव के माहात्म्य से विद्यामय पट पर आसीन वे पृथ्वीतल को देखते हुए जा रहे थे। ज्योतिषी, व्यन्तर, विद्याधर तथा आकाशचारियों द्वारा प्रभु के विद्या अतिशय को देखकर विस्मित मानस होकर, स्थान-स्थान पर मार्गस्थ राजा तथा क्षत्रियों द्वारा, वन्द्यमान, प्रशंसित, पूजित प्रभु को देखकर - क्या यह बादल है या पक्षी है, या पहाड़ है या फिर देव द्वारा कुछ उठाकर ले जाया जा रहा है। इस प्रकार वितर्क करते हुए विकसित कमल-नयनों से भूचरों द्वारा गर्दन ऊँची करके देखे जाते हुए स्तूयमान, पट पर स्थित मनुष्य समूहों के द्वारा गुणगान करने में मुख जिनका (मानवों का) बंध नहीं हो रहा है ऐसे सुनन्दा-नन्दन प्रभु पुरी नामकी नगरी में आये। सुभिक्षा से युक्त सौराज्य से उन्मत्त वह पुरी थी। वहाँ पर बहुत से आहत थे, तो बहुत से बौद्ध मतावलम्बी भी थे। आर्हतों तथा सौगतों द्वारा परस्पर स्पर्धा में आबद्ध होकर अपने-अपने चैत्यों में नित्य चित्रविचित्र पूजा की जाती थी। बहुत मूल्य वाले पूजा उपकरणों द्वारा प्रभूत मूल्य से पहले भी सभी श्रावक पूजा करते थे। उस प्रकार का द्रव्य-व्यय कृपण बौद्ध करने में समर्थ नहीं थे। अतः उनके चैत्यों में उस प्रकार की पूजा नहीं होती थी। तब सुगत उपासकों ने ईर्ष्यापूर्वक श्रावकों के कुसुम-पूजा आदि को राजा द्वारा निषेध करवाकर अपने आप को विजित मान लिया। राजा की आज्ञा से अवश वे उस पूजा विधि के लिए तथा शिर पर बाँधने के लिए भी फूलों को कहीं नहीं पाते थे।
तभी परमार्हत पर्युषण पर्व उपस्थित हुआ। सभी ने वज्रमुनि के पास जाकर पुष्पों के निषेध की कथा बतायी। प्रभु! आप प्रवचन के आधार है। विद्या लब्धि के सागर है। आप ही त्राण रूप हैं। अतः हम परिभूत जनों को तारो। सभी जिन-बिम्ब बिना पुष्प पूजा के हो गये है। फिर हम क्यों जी रहें हैं? प्रभो! हम क्या करें? यह राजा कुदृष्टि वाला है। अतः यह वचन द्वारा साध्य नहीं है। पुकार के लिए अंगद की तरह आप ही समर्थ है। नहीं तो पर्युषण पर्व के दिनों में हम भी निर्ग्रन्थों की तरह सिर्फ भाव-अर्चना करके ही रह जायेंगे।
तब भगवान ने कहा - हे भद्रो! आप अब खेद न करें। मैं पराभव की लत्ता को क्षणभर में ही कदलीछेद की तरह छिन्न करूँगा। इस प्रकार कहकर वज्र प्रभु आकाश में छलांग लगाकर पक्षी की तरह उड़कर क्षण भर में ही महा ऐश्वर्य युक्त महेश्वरी पुरी नगरी में गये। दिव्य नन्दीश्वर द्वीप की तरह पहाड़ों से घिरे हुए हुताशन नामक देव के उपवन में भगवान् उतरे। वहाँ पर उनके पिता का मित्र उद्यानपालक था। उसका नाम ताड़ित था। वह वसन्त के समान पुष्पलक्ष्मी से अति विख्यात था। वह भी मित्र-पुत्र को देखकर शीघ्र ही समीप आया और बोला - बिना बादल के बरसात हुई है। यह बिना फूल के ही फल उत्पन्न हुआ है। आज ही सभी समृद्धि आयी है। आज मेरे क्या-क्या नहीं हुआ? आज जैसा श्रेष्ठ दिन मेरे जीवन में कभी नहीं आया। क्योंकि सकल श्रेयों के पात्र रूप आप आज मेरे अतिथि हुए हो। अतः हे भगवन्! आपका क्या आतिथ्य करूँ। आपकी क्रियाओं को नहीं जानता हुआ मैं किंकर्त्तव्यमूद हूँ।
वज्र स्वामी ने कहा - हे भद्र! मुझे पुष्पों से प्रयोजन है। उसने कहा - मैं अनुगृहीत हुआ। कहिए, कितने चाहिए। प्रभो! यहाँ प्रतिदिन बीस लाख पुष्प होते हैं। जिनके सौरभ के उत्कर्ष के कारण देवता भी इन्हें सिर पर धारण करते हैं। प्रभु ने कहा - तुम उन सभी पुष्पों को एकत्रित करो, तब तक मैं आगे जाकर शीघ्र ही वापस आता
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