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________________ वज्र स्वामी की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् विषयाणां प्रकोपस्तु यायाज्जन्मान्तरेष्वपि । विषयों का प्रकोप तो जन्मांतर में भी साथ ही जाता है। संज्ञा आदि के विषयों के सहारे तो मैं सदा ही रहा हूँ। अब सन्मार्ग में संचरण करते हुए कैसे इन विषय रूपी चोरों द्वारा पकड़ा जाऊँ? हे श्रेष्ठि! अगर तुम्हारी पुत्री मुझमें अनुरक्त है, तो वह भी मेरे ही मार्ग का अनुसरण करे। विवेकी जनों द्वारा निन्दित विषयों की आकांक्षा न करे। दुष्ट की सेवा की तरह विषय अनेक महा-अनर्थों का कारण है। अतः चारित्र-वाहिनी द्वारा अपने हित को साधती हुई तुम्हारी दुहिता मेरे साथ भव रूपी समुद्र का शीघ्र ही पार पा लेगी। यह सुनकर रुक्मिणी शीघ्र ही प्रतिबुद्ध हुई। सिद्धिसौद्ध पर ले जानेवाली परिव्रज्या को स्वीकार किया। उस प्रकार की वज्र प्रभु की निर्लोभता देखकर अत्यधिक विस्मित होते हुए लोगों ने मन में इस प्रकार विचार किया - लोभी तो सैकड़ों बार माँग-माँगकर ग्रहण करते हैं, और ये दिये जाने पर भी लोभवर्जित होकर ग्रहण नहीं करते हैं। निर्लोभी होने से इनमें ही निश्चय ही तात्त्विक धर्म है। कहा भी है - लोभमूलानि पापानीत्याख्यान्ति शिशवोऽपि यत्। शिशु होते हुए भी ये कहते हैं कि लोभ पाप का मूल है।। इस प्रकार प्रतिबुद्ध होते हुए लोगों ने जिनधर्म स्वीकार किया। राजा भी उनके अतिशय से एकाग्रमना हुआ। पदानुसारी लब्धि द्वारा वज्र स्वामी ने आचारांग में स्थित महा-परिज्ञा अध्ययन से आकाश-गामिनी विद्या द्वारा आकाशमार्ग से जम्बूद्वीप से मानुषोत्तर पर्वत तक भ्रमण करने की शक्ति प्राप्त की। प्रभु ने विचार किया कि यह विद्या अन्य किसी को देना योग्य नही है, क्योंकि भविष्य में प्राणी मन्दसत्त्व वाले होंगे। ____एक बार भगवान् वज्रस्वामी प्रश्न किये हुए मनुष्य की तरह (प्रश्न किये हुए को जैसे उत्तर मिलता है वैसे वे उत्तर दिशा में गये) पूर्व दिशा से उत्तर दिशा को अलंकृत किया। वहाँ सभी जगह अत्यन्त भीषण दुर्भिक्ष पड़ा। जैसे कामुक कामिनी में आसक्त रहते हैं, वैसे ही मनुष्य आहार की लालसा वाले हो गये। अन्न के अभाव में थोड़ेथोड़े अन्न को खाने से लोग रोगी की तरह लंघन क्रिया करते हुए जीने लगे। धनाढ्य लोग भी जीर्ण हाथी की तरह कालयोग से उस समय अ-दान-शाली हो गये। जगत के शत्रु रूप कराल उष्णकाल से गाँवों के मार्ग भी दुःसंचार युक्त हो गये अर्थात् भूमि पर पत्थर ढेले आदि की बहुलता हो गयी। सैन्य के कोलाहल की तरह त्राहि-त्राहि मच गयी। गरीब एक दूसरे से फलादि छीन-छीनकर पदाती सेना की तरह लड़ने लगे। भस्मक रोग से ग्रसित की तरह दुर्भिक्षा से मनुष्य आकुल हो गये। दो गुने-तीन गुने आहार को खाने वाले भक्षक के समान बन गये। अगर भिक्षा के लिए साधु घर में आते, तो माता बच्चों को सिखाकर बाहर भेजती। वे निश्छल बालक आकर साधुओं को कहते कि मेरी मां बोलती है कि मैं घर पर नहीं हूँ। तब समस्त संघ दुःकाल रूपी जंगली पशुओं की मार से प्रताड़ित हो गया। समस्त संघ ने शरणार्थियों के शरण स्वरूप वज्र मुनि को सभी समाचार कहलवाये। दुष्काल रूपी बादलों ने समुद्र के प्रलय की रचना पृथ्वी पर की है। हम सभी आप्लावित हो गये हैं। हे नाथ! कृपा करके हमें तारों। तब वज्र मुनि ने संघ-अनुग्रह की कामना से विद्याशक्ति द्वारा पृथ्वी के तल की तरह विशाल पट वाले विमान की रचना की। उस पर संपूर्ण संघ को देवों के पालक सौधर्मपति की तरह आरुद करवाया। जिस प्रकार कूणिक द्वारा वैशाली भंग किये जाने पर अपने नाना चेटक सहित नगरजनों को सत्यकी ने निर्भय स्थान पर लाया था, वैसे ही विद्या का स्मरण करके प्रभु अखिल जनों को आकाश मार्ग से अन्यत्र ले जाने लगे। प्रभु को आकाश मार्ग से संघ युक्त जाते देखकर प्रभु का भूचारी शय्यातर पीछे भागा। अपने केशों को उखाडते हुए बोला - प्रभो! आपका शय्यातर हूँ। साधर्मिक भी हूँ, अतः प्रभो! इस समय मेरा निस्तारण कीजिए। अभ्यर्थना से दीन वचन सुनकर तथा लुंचित मस्तक वाले शय्यातर को देखकर प्रभु ने श्रुत का चिन्तन किया - - 191
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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