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________________ नर्मदासुंदरी की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् की उसकी प्रिया थी। उसके सहदेव तथा वीरदास दो पुत्र थे। सर्व स्त्री गुणों से सेवित ऋषिदत्ता नाम की पुत्री थी। उसके गुणों से आकृष्ट होकर अनेक वर उसके लिए आये। पर अत्यधिक धनवान होने पर भी मिथ्यादृष्टि होने के कारण अपनी पुत्री का विवाह सार्थवाह ने नहीं किया। उसने कहा कि जो कोई जिनधर्म में एकान्त निश्चल श्रद्धा वाला होगा, वह चाहे दरिद्र हो या कुरूप-उसी को अपनी पुत्री दूंगा। यह वृतान्त सुनकर कूपचन्द्र नामक पत्तन से ऋषिदत्ता को चाहनेवाला रुद्रदत्त नाम का सार्थपति वहाँ आया। अपने मित्र कुबेरदत्त के यहाँ अपना माल रखकर उसकी दूकान में बैठा नगर की श्री को देख रहा था। तभी ऋषिदत्ता को अपनी सखियों से घिरी पथ पर जाते देखकर विस्मित होते हुए उसने मित्र से पूछा - क्या यही ऋषभसार्थवाह की आत्मजा है? उसने कहा - हाँ! यही है। पर मुक्ति श्री की तरह यह अनाहत को नहीं दी जायगी। तब ऋषिदत्ता को पाने की चाह में उसने रोज जैन गुरु की उपासना करनी शरु कर दी। उस ऋषिदत्ता में लीन मनवाला होकर कपटपूर्वक श्रावक बनकर सात क्षेत्रों में उसने बहुत धन लगाया। क्यों न हो - रागान्धः कुरुते न किम्? अर्थात् राग में अन्धा व्यक्ति क्या नहीं करता? उसके व्यवहार को देखकर ऋषभदेव अति प्रसन्न हुआ। उसने स्वयमेव उसे कन्या देकर विवाह किया। रुद्रदत्त उसके साथ सुख भोगने लगा। तभी उसे बुलाने के लिए उसके पिता का पत्र आया। पत्र का भावार्थ जानकर श्वसुर को पूछकर अपनी प्रिया ऋषिदत्ता के साथ वह कूपचन्द्र पत्तन को गया। पिता आदि के द्वारा अभिनंदित वह वहाँ सुख से रहा। कपट पूर्वक अपनाया हुआ धर्म वह थोड़ा-थोड़ा करके छोड़ने लगा। मिथ्यात्वियों के संसर्ग से ऋषिदत्ता भी मिथ्यादृष्टि बन गयी। किसी ने ठीक ही कहा है - स्वर्णमप्यग्निसंसर्गादग्निवज्जायते न किम्? क्या स्वर्ण भी अग्नि के संसर्ग से अग्नि की तरह नहीं हो जाता? उसके पिता ने यह सब जानकर संदेश आदि भिजवाना भी छोड़ दिया। परस्पर थोड़ा सा अन्तर होते हुए भी मनों की दूरी के कारण समुद्र पार जितनी दूरी बढ़ गयी। उन दोनों ने स्वेच्छापूर्वक विषयसुख भोगा। एक बार ऋषिदत्ता के कामदेव की श्री के समान पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम महेश्वरदत्त रखा गया। वह नये चन्द्र की तरह वृद्धि को प्राप्त होने लगा। क्रमशः कला-सागर को पार करता हुआ नवयौवन को प्राप्त हुआ। इधर वर्द्धमान नगर में उसका मामा सहदेव रहता था। उसकी प्रिया का नाम सुन्दरी था। उसने अपनी प्रिया के साथ संसार के सर्वस्व सुख को भोगा। एक बार वह गर्भवती हुई। गर्भ के साथ उसे दोहद भी उत्पन्न हुआ। दोहद पूर्ण न होने के कारण वह दूज के चाँद की तरह पतली हो गयी। चिन्ता ने प्रौढ़ शाकिनी की तरह उसके माँस व खून को सोख लिया। सहदेव ने यह स्थिती देख अपनी प्रिया से पूछा - तुम्हारी किस इच्छा की पूर्ति नही हुई? जिससे कि तुम ऐसी हो गयी हो। उसने कहा -प्रिय! मुझे गर्भ के अनुभाव से दोहद उत्पन्न हुआ है कि नर्मदा नदी में जाकर संपूर्ण सामग्री द्वारा आपके साथ जल क्रीड़ा करूँ। इस प्रकार की इच्छा पूरी न होने पर अप्राप्ति से मेरा शरीर कम्हला रहा है। तब उसने अपनी प्रिया को आश्वासन देकर सारी सामग्री की व्यवस्था की। सैकडों वणिक पत्रों से यक्त महासार्थ तैयार किया। फिर विभिन्न प्रकार का माल लेकर शभ महल में अपनी प्रिया के साथ रवाना हआ। जीतने की इच्छा से जाते हए राजा की तरह विश्राम ले लेकर प्रयाण करते हए सैन्य के समान नर्मदा के किनारे सार्थ ने आवास किया। आनंददायक नर्मदा में इन्द्र की तरह अपनी प्रिया के साथ महाऋद्धि पर्वक मज्जन क्रीडा की। उसका दोहद पूर्ण होने की खुशी में वहाँ नर्मदापुर नामक नगर बसांकर अर्हत्चैत्य बनवाया। उस उत्तम पुर के बारे में सुनकर अनेक वणिक वहाँ आ गये। वहाँ महान लाभ होने से उस नगर की ख्याति चर्ता गर की ख्याति चतुर्दिग में फैल गयी। 159
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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