SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नर्मदासुंदरी की कथा कितने दिनों से मैं इस भव के विपाक देख रही हूँ। अतः हे तात! यहाँ क्षण भर भी रहने का मेरा मन नहीं है। राजा ने प्रेमपूर्वक कहा - बेटी! अभी तो तुम नवयौवना हो। यौवन रूपी अरण्य दुर्लंघ्य है तथा मोहराज अति दुर्जय है। इस देव-ऋद्धि की विलासिता को जानकर भव-सुख को भोगकर वय की परिणति होने पर तुम धर्म उद्यम करना। हे वत्से! कहाँ तुम्हारा यह कोमल शरीर और कहाँ दुष्कर तप! तुम्हारा शरीर नवोद्गम किशलय की तरह सूर्य के ताप के समान तप को सहन नहीं कर पायगा। वयोवृद्ध ही परमार्थ को साधने में शक्तिमान होते हैं। पूर्ण चन्द्रमा की किरणें ही जगत को प्रकाशमान करती हैं। यह सुनकर चन्दना ने चन्दन की उपमा वाले शीतल वचनों से कहा - तात! धर्म का यही काल तीर्थंकरों द्वारा युक्त कहा गया है। जब तक वृद्धावस्था शरीर को बाधित नही करती, जब तक व्याधि नहीं बढ़ती, जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं हो जाती, उससे पहले ही धर्म का आचरण करना चाहिए। यौवन के जरा द्वारा क्रियाओं में अक्षम हो जाने से फिर कहाँ तप और कहाँ जप? यह सब वार्तालाप सुनकर शक्रेन्द्र ने शतानीक को कहा - हे राजन्! यह बाला चरम शरीरी है। यह भोग से पराङ्गमुखी है। भगवान् वीर स्वामी को केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद यह उनकी प्रथम शिष्या बनेगी। अतः इस अमूल्य रत्न का आप भगवान् की कैवल्य उत्पत्ति होने तक पालन करें। यह रत्न वृष्टि आदि धन इस पुण्य शालिनी महा धनिका का है। यह स्वयं चाहे तो ग्रहण करे अन्यथा जिस किसी को भी यह इच्छानुसार प्रदान कर सकती है। राजा को यह कहकर इन्द्र चंदना की प्रशंसा करके तथा स्वामी को प्रणाम करके देवों के साथ सुरलोक चला गया। पाँच महीने २५ दिन की तपस्या का पारणा करके धनावह श्रेष्ठि के घर से भगवान् वीर स्वामी चले गये। धनावह ने भी वह धन तथा चन्दना राजा को समर्पित कर दी। अपनी मौसी मृगावती के साथ चन्दना राज भवन में आ गयी। श्रेष्ठि की प्रशंसा करके राजा, अमात्य आदि तथा सभी पौरजन चन्दना की प्रशंसा करते हुए प्रसन्न होकर अपने-अपने घर लौट गये। अनर्थ की मूल भूत मूला को श्रेष्ठि ने अपने घर से निकाल दिया। वह अपध्यान से मरकर नरक गति में उत्पन्न हुई। कन्या-अन्तःपुर में रहती हुई चन्दना नित्य देव बुद्धि से एकमात्र वीर जिनेश्वर को ध्याती रही। श्रृंगार रहित सदाचार युक्त निर्विकार भाव से वह महासती दान, शील, तप व भाव से धर्म कर्म में परायणा बनी। स्वामी को कैवल्य - उत्पन्न होने पर सुर-असुर-नरेन्द्र आदि द्वारा निष्क्रमण महोत्सवपूर्वक विधि से उसे दीक्षा दी गयी। छत्तीस हजार आर्याओं की वह प्रवर्तिनी बनीं। फिर केवलज्ञान उत्पन्न होने पर सिद्धिसौध को प्राप्त अतः विधिज्ञों द्वारा सुविशुद्ध चित्त से विधिपूर्वक सुपात्रदान सदैव दिया जाना चाहिए। जिससे चन्दनबाला की तरह इस भव में ख्याति व अपर भव में मुक्ति प्राप्त करें। - इस प्रकार दान में चन्दनबाला की कथा पूर्ण हुई। __ अब शील व्रत पर नर्मदासुन्दरी की कथा को बताते हैं - || नर्मदासुन्दरी की कथा || इस जम्बूद्वीप के सुविस्तीर्ण भरत क्षेत्र में नागरिकों के वर्द्धमान गुणों से वर्द्धित वर्द्धमान नामक पुर था। मौर्यवंश के भूषण कुणाल महीपति का पुत्र संप्रति भरत के तीन खण्ड का अधिपति राजा था। उसी नगर में ऋषभसेन नामक महाऋद्धिवाला सार्थवाह था। नित्य जिनधर्म में रत रहने वाली वीरमति नाम 158
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy