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________________ मूलदेव की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् आओ। कल्पवृक्ष की तरह मैं तुम्हारी दरिद्रता को शीघ्र ही हर लूँगा। जिस प्रकार बलि का हनन् करने के लिए विष्णु ने भी याचकता को स्वीकार किया था, उसी प्रकार राजा ने भी उस दस्यु की अनुचरता स्वीकार कर ली। उसने भी क्रुध दैव के रूप में उस राजा को नहीं पहचाना। किसी महा इभ्य कुबेर के समान धनी सेठ के घर में गया। वहाँ सेंध लगाकर उसने संपूर्ण मूल्यवान् पदार्थों की चोरी की। शंख दानव के समान चारों तरफ मुख करके सारी मिल्कत ले ली। फिर बिल्ली द्वारा खीर की रक्षा कराने की तरह उस मूद चित्त वाले चोर ने वह सारा धन उठाकर ले जाने के लिए राजा को दे दिया। उसे उसकी कसौटी पर कसने के लिए उस के वचन से राजा ने भी वह भार उठा लिया। धूर्त लूटने की इच्छा से ही पहले मनुष्य को वश में करता है। एक जीर्ण उद्यान में जाकर उसने भूगृह का द्वार खोला। राजा ने भी हरिण का पीछा कर रहे शिकारी की तरह उसमें प्रवेश किया। साक्षात् पाताल कन्या की तरह एक कन्या वहाँ थी जो उसकी बहन थी। नवयौवन के साथ सर्वांग सौभाग्ययुक्त थी। वह मण्डिक के कहने पर कुएँ के निकट कुएँ की मुंडेर पर वध्यभूमि की तरह राजा को बिठाकर उसके पाँव धोने लगी। उसके पाँवों का प्रक्षालन करते हुए उसने उसके लक्षणों को देखा। संपूर्ण अंगों को देखते हुए उसने विचार किया कि क्या यह कामदेव स्वयं है? तब उसमें अनुरक्त होते हुए उसने विचार करके कहा - हे सुभग - प्रमुख! यहाँ लोगों को पैरप्रक्षालन के बहाने से इस खड्ढे में गिरा दिया जाता है। तुम तो भद्र आकृति वाले हो, कोई सामान्य पुरुष नहीं हो। अतः शीघ्र ही यहाँ से भाग जाओ। मृत्यु के ग्रास न बनो। उसके कहने पर राजा ने सर्व वृत्त जानकर कि यह यहाँ सभी को वध करने के लिए लाता है। इस प्रकार विचारकर राजा वहाँ से निकल गया। फिर उस पुरुष की रक्षा तथा अपना दोष छिपाने के लिए उस बुद्धिमती स्त्री ने छलपूर्वक क्षण भर बाद कहा - यह भाग गया है। म्यान से तलवार खींचकर मानो प्राणों को अपहरण करने की श्रृंखला की कड़ी हाथ से खींचकर उसे मारने के लिए मण्डिक मृत्यु के दूत की तरह दौड़ा। उस चोर को चोर के समान नजदीक आते हुए देखकर राजा भी चार खम्भों के बीच में से होकर शीघ्र ही दूसरी तरफ निकल गया। दर्प से तथा क्रोध से अंधा होकर उस पत्थर के खम्भे को पुरुष समझकर क्रोधी मण्डिक ने अपने खंग - दण्ड से उसे काट डाला। फिर विजयोन्मत्त होता हुआ चोर अपने स्थान को चला गया। राजा भी चोर की प्राप्ति से प्रसन्न ता हुआ महल लौट आया। प्रातःकाल राजा उस राज्य शत्रु को देखने के लिए निकला। उसको देखने के लिए इधर-उधर चारों तरफ पैनी दृष्टि घुमायी। उस शठ चोर ने उस जगह कपड़े की दूकान कर ली थी तथा स्वयं दर्जी बनकर पास में छिपी हई तलवार वाली यष्टि लेकर जाससी नजरों से सब ओर देख रहा था। वह जंघा, उरु, भुजा व मस्तक रूपी चोरों के बीच कपट प्रवेश से यक्त होकर पगडी बांधने के बहाने पट्टबन्ध को धारण कर रहा था। रात्रि को देखे हए र को देखकर राजा ने शीघ्र ही तार्किक के समान उन-उन लक्षणों से अनमान करके निश्चय कर लिया। फिर महल में जाकर चिह्न आदि के द्वारा समझाकर राजा ने अपने अनुचरों को उस दर्जी को लाने के लिए भेजा। बुलावे द्वारा उसने भी सोचा कि मेरे द्वारा रात्रि में वह पुरुष नहीं मारा गया था। यह उसीका तुच्छ परिणाम है। वह राजा के महल में आया। राजा ने भी उसका सत्कार किया। चतुर लोग किसी कारण के होने पर बन्दी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं। तब राजा ने उनसे कहा - अपनी बहन मुझे दे दो। क्योंकि अन्य किसी को तुम उस कन्या को तो दोगे ही। मेरी बहन कभी भी घर से बाहर नहीं निकली। किसी ने भी उसे नहीं देखा। अतः निश्चय ही यह राजा छलपूर्वक रात में मेरे घर आया था। यह जानकर उसने चतुराई पूर्वक कहा - देव! यह क्या कहा? मेरी बहन ही नहीं, बल्कि मेरा सर्वस्व भी आपका ही है। तब उसी समय उस कन्या की राजा के साथ शादी कर दी। प्राणदान रूप उपकार करने से वह राजा को अति प्रिय थी। फिर राजा ने श्रीकरण अमात्य को कहा, कि बिना विश्वास दिलाये सब कुछ लेना योग्य नहीं है। जैसे - सरोवर से पानी लिया जाता है। वैसे ही राजा ने उसका अखिल द्रव्य किसी 151
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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