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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् मूलदेव की कथा राजा ने कर-वसूलकों से कहा-इसका आधा भाग इस सत्यवादी श्रेष्ठि से ग्रहण कर लो। लेकिन उससे पहले एक बार पुनः इसके माल का निरीक्षण कर लो। ताकि इसे सत्यवादियों में शिरोमणि करके पट्टबन्ध किया जाये। तब उन राज-कर्मचारियों द्वारा लकड़ी से तथा पाँवों के प्रहार से शोधन करते हुए उन दक्षों द्वारा उस व्यापारी की शठता को पहचान लिया गया। जहाँ माल रखा हुआ था, उस स्थान में गर्भ गृह खोदने पर क्षणभर में ही असार से सार लाकर राजा को माल का दर्शन कराया। राजा ने अचल से कहा - यही है तुम्हारी सत्यवादिता। बार-बार पूछने पर भी इस महादम्भिक ने नहीं बताया। तब कुपित होते हुए राजा द्वारा आज्ञा दिये जाने पर सैनिकों ने उसे शुल्कचोर रूप से बाहर बाँध दिया। फिर उसे अपने आवास में ले जाकर बन्धन खोलकर पूछा - अचल! क्या मुझे जानते हो? उसने कहा - राजाओं में राजा की तरह शीतल, उग्र प्रतापियों में सूर्य के समान प्रतापी आपको कौन नहीं जानता, राजा ने कहा - चाटु उक्ति कहना बन्द करो। यह बताओ कि तुमने मुझे पहले कभी देखा है या नहीं? स्मरण शक्ति नहीं रहने से कुछ आतुर होकर बोला - नहीं जानता हूँ। तब राजा ने देवदत्ता को बुलाकर उसको दिखाया। वह राजा की तरह ही राजा की सर्व विभागिनी थी। उसने भी उसको देखकर लज्जा नामक भुंजग के दंश से पीड़ित मूर्छा की तरह मुँह नीचा करके नजरे झुकालीं।। देवदत्ता ने कहा - खेद है! जानो कि यह राजा मूलदेव है। उस समय तुमने इससे कहा था कि मेरी भी आपत्ति में रक्षा करना। अतः महा अपराध करने पर भी तुमको पकड़कर भी इसने छोड़ दिया है। अतः अपकार व उपकार दोनों का ऋण आज अदा हो गया है। ___ तब अचल मूलदेव को जानकर शीघ्र उसके पाँवों में गिरकर पूर्व में किये अपराधों की माफी मांगने लगा। उसने राजा को कहा - देव! उज्जयिनी पति ने इसी गुनाह के लिए मुझे अवन्ती से निकाल दिया है। तब कृपालु मूलदेव ने अपने दूत के द्वारा प्रसन्न किये जाने पर अवन्ती-नरेश ने उस वणिक् को अवन्ती में आने दिया। एक बार महाजन ने आकर नमस्कार करके प्रजानाथ मूलदेव को अपना दुखड़ा बताया - आप जैर के होते हुए भी यह पुर एक चोर द्वारा त्रस्त है। जीर्ण वस्त्रों को धारण करने वाला चोर यह सारा कार्य करता है। हे स्वामी! वह खात्री खोदकर हमारे घरों में घुस जाता है। सहस्त्रों घरों में इस तस्कर ने खोद-खोदकर छेद कर दिये हैं। हे स्वामी! आपके सारे आरक्षक अरक्षक ही साबित हुए हैं। कठिनाई से पकड़ने योग्य वह चोर रात के राक्षस की तरह घूमता है। राजा ने कहा - हे भद्र! खेद न करें। मैं आप सभी को सुखी करूँगा। शीघ्र ही सभी चोरों को यमपुरी के नागरिक बनाऊँगा। इस प्रकार साजा ने महाजन को समझा-बुझाकर रवाना किया। फिर आरक्षकों को बुलाकर कहा - क्या पुर की रक्षा नहीं करते? उन्होंने भी भयभीत होकर कहा - स्वामी! वह एक ही चोर है। विद्या सिद्ध की तरह अनेक रूप प्रकट करता है। अनेक उपायों द्वारा उसे पकड़ने की कोशिश की गयी। पर जैसे हनुमान राक्षसों के हाथ नहीं आये, वैसे ही यह भी हमारी पकड़ में नहीं आया। क्रोधित होकर राजा स्वयं पिण्डी भत अंधकार के समान अंधकार पट से आच्छन्न रात्रि में निकल पडा। चोरों के रहने के गुप्त स्थानों को छान मारा। पर चावल रहित खीर की तरह वह कहीं भी दिखायी नहीं दिया। घूमतेघूमते थककर एक खण्डित मन्दिर के अन्दर सिंह की तरह निर्भय होकर धैर्य के साथ राजा सो गया। आधी रात में वहाँ मण्डिक नामक चोर आया। छोटी तलवार हाथ में लिए राक्षस की तरह वह हाथ में कुहाड़ी लिये हुए था। कौन पुरुष यहाँ सोया हुआ है - उसने इस प्रकार राजा से कहा। फिर अपने पाँव से जैसे स्वामी सोये हुए रात के प्रहरियों को हिलाता है वैसे ही उसने राजा को हिलाया। राजा भी उसकी आकृति से उसको चोर जानकर जल्दी से उठा और उसको विश्वास दिलाने के लिए कहा - हे पथिक! मैं संन्यासी हूँ। उसने कहा - भद्र! ठीक है। तुम मेरे साथ 150
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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