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________________ मूलदेव की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् आता है या नहीं? फिर उसने अर्द्धपल(चार कर्ष भार) तेल लेकर उसके संपूर्ण शरीर में तेल लगाकर मर्दन किया। लोम आहार की तरह उसके शरीर के रोम-रोम में तेल रमा दिया। उस तेल से शरीर के अंदर गर्मी पैदा न हो जाय। अतः उसके अंगों से सारी गर्मी को पसीने के रूप में क्षणभर में खींच लिया। उस कला के भी उत्कर्षों से देवदत्ता अत्यन्त अनुरक्त हो गयी। उसने विचार किया कि क्या यह संपूर्ण कलाओं के आदि-गुरु है? देव की तरह उसके चरणों में गिरकर उसे एकान्त में ले जाकर प्रेमपूर्वक अंजली बद्ध होकर उसने पूछा-आप या तो कोई देव है या दानव है या फिर विद्यासिद्ध पुरुष है, जो कि कूबड़े के कृत्रिम रूप में है। मैंने आपके गुणों से यह जान लिया है। अतः मुझ पर प्रसन्न होकर शीघ्र ही अपना निजी रूप प्रकाशित करें, ताकि उसे देखकर मेरी दृष्टि की निर्मिति सफल हो सके। उस वेश्या के अत्यधिक आग्रह करने पर उस गुलिका को दूरकर देवों को भी जीतने वाले सोन्दर्य युक्त अपने निज रूप को प्रकाशित किया। उस सद्भाव युक्त प्रेमशालिनी मानवी के आगे कुछ भी न छिपाते हुए अपना संपर्ण वतान्त शरु से लेकर अब तक का कहा। तब देवदत्ता ने कान्ति. प्रसक्ति. माहात्म्य. कला आदि अनपम उपमाओं से यक्त मलदेव को राजपत्र जानकर उसके गणों में अनरक्त होते हए अपने आप को अर्पण कर दिया व कहा-हे प्राणनाथ! मेरा सर्वस्व प्रेम अब आप पर ही है। ऐसा कहकर मृदु अंगी होते हुए भी उसने उसके संपूर्ण अंगों की स्वयं ही मालिश की। किसीने कहा भी है प्रेम्णो किंचिन्न दुःकरम् ।। प्रेम में कुछ भी दुष्कर नहीं है। फिर दोनों ने स्नान करके एक ही थाल में भोजन ग्रहण किया। दम्पती भाव स्वीकार किये हुए की तरह खूब सुख प्राप्त किया। प्रतिदिन स्नेह मय सुख को उसके साथ प्राप्त करते हुए देवलोक में शचि के साथ इन्द्र की तरह सौख्य अनुभव करने लगा। वहाँ भी वह द्यूत क्रीड़ा करने लगा। देवदत्ता ने भी कहा-आप द्यूत क्रीड़ा को मेरी सौत बना रहे है, अन्य को क्यों नहीं? लेकिन वहाँ पर भी सैकड़ों मन्त्र वादियों से ग्रहित पात्र की तरह मूलदेव ने द्यूत क्रिया नहीं छोड़ी। एक बार राजा को नृत्य दिखाने जाते हुए देवदत्ता ने मूलदेव को वाद्यन्त्र बजाने के लिए प्रार्थना की। और कहा कि अगर मेरे नाच करने पर आप पटह बजायेंगे, तो मैं उस नाट्य द्वारा रम्भा के नृत्य को भी नीचा कर दूंगी। उसने भी पत्नी के दोहद की तरह उसकी अभीष्ट पूर्ति की। उसके नृत्य से प्रसन्न होकर राजा ने उसे वर माँगने के लिए कहा। उसने भी कहा-देव! आपका यह वर भाण्डागार में रखें। किसी बड़े कार्य में आपसे यह वर प्राप्त कर लूँगी। एक बार राजा ने उसे सार्थाधिपति अचल को दे दी। वह सार्थपति भी द्वितीय कुबेर की तरह लक्ष्मी व प्रीति से युक्त होकर उसके घर आया। देवदत्ता ने भी उसका यथोचित स्वागत किया। अपने घर में आये हुए कल्पवृक्ष को कोई भी अनादर नहीं करता। वह अचल देवदत्ता में अत्यधिक अनुराग वान होकर उसके समान उसके दासों को भी दानादि से संतुष्ट करने लगा। जिस प्रकार देवों ने साढ़े तीनदिन तक अयोध्या में स्वर्णरत्न आदि की वर्षा की थी, उसी प्रकार वह भी उसके घर में स्वर्ण, रत्न, वस्त्र आदि की नित्य वर्षा करने लगा। फिर भी देवदत्ता गुणानुरागी दृष्टि वाली होने से अचल के साथ कृत्रिम स्नेहपूर्वक नाना प्रकार के चित्तहारी विनोदों द्वारा रमण करती थी। पर मूलदेव के साथ आन्तरिक स्नेह से युक्त होकर अन्दर जाकर रमण करती थी, मानो वह अचल को जानती ही न हो। एक बार उसके पास रहनेवाली उसकी माँ ने कहा-पुत्री! यह विरुद्ध कार्य मत करो। इसे जानकर अचल तुम में दुर्मना हो जायगा। तुम इस प्रकार के जुआरी मूलदेव में क्यों अनुरक्त हो? तथा इष्टि प्रदान करने वाले अचल में क्यों अनुरक्त नहीं होती? मां के इस प्रकार कहे जाने पर भी देवदत्ता ने उसकी शिक्षाओं पर ध्यान नहीं दिया। 143
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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