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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् मूलदेव की कथा अतः सिर्फ वेश्या नाम भर होने से आप मत डरें। हे गुणधारी! पहले हमारी स्वामिनी के गुणों व अवगुणों को जाने। अतः वहाँ आने की हमारी प्रार्थना को आप मान्य करें। इस प्रकार चाटुकारिता से बोलती हुई उसके पैरों पर गिर पड़ी। मूलदेव ने अपनी कला-निष्णात के द्वारा उसकी पीठ के कूबड़े स्थान को सीधा करने के लिए मुट्ठी का प्रहार किया। प्रत्यंचा रहित धनुष की तरह तत्क्षण वह कुब्जा सरल आकृति वाली हो गयी। तब उसके उपकार से भार भूत अंगवाली वह दासी आदरपूर्वक अनुरोध करके हर्ष युक्त होकर उस गायक को घर में ले गयी। देवदत्ता वेश्या भी उसको देखकर आश्चर्य चकित हो गयी। उसने स्वयं आगे बढ़कर स्वागत किया। गुणी किसकी पूजा के योग्य नहीं होता? सागर से वियुक्त चन्द्रमा को शिव ने अपने सिर पर धारण किया। गुणी व्यक्ति कहीं भी चला जाय, उसे सिर पर ही बिठाया जाता है। रोहण पर्वत से भ्रष्ट रत्न विमल गुणों द्वारा राजाओं के मुकुटों के अग्रभाग में धारण किये जाते हैं। देवदत्ता वेश्या ने दासी से कहा-हे कुब्जा! तुम इस प्रकार कैसे हो गयी? उसने भी विस्फारित नेत्रों से उस गायक का चमत्कार बताया। तब वह गणिका उसके कौशल को देखकर विशेष रूप से चमत्कृत हो गयी। तब उससे वार्तालाप रूपी सुधापान करने लगी। इसी बीच वहाँ वीणा बजाने में प्रवीण एक वीणा वादक आया। उसने देवदत्ता के सामने वीणा बजायी। नाट्य शास्त्र में कही हुई भंगियों के द्वारा वीणा बजाते हुए सुनकर देवदत्ता ने भी विस्मित होते हए उसकी प्रशंसा की। मलदेव ने कानों को बंदकर इस प्रकार कहा-जो इस प्रकार के स्वर को सनते है, वे वज्रकर्ण वाले हैं। यह सुनकर वह वीणावादक ईर्ष्यापूर्वक हंसते हुए बोला-हे भ्रातः! इस वीणा में अथवा वीणावादक में क्या दोष है? जरा यह तो बताओ। उसने कहा-हाँ! है। तुम्हारे इस तन्त्री दण्ड में, इस वीणा में एक छोटा सा कठोर बीज रहा हुआ है। हे वीणावादक! अब कहो! क्या कहते हो? वीणावादक ने वह वीणा कुब्जा दासी को दी और कहा-दिखाओ। मूलदेव, जो कि ज्ञाता था, उसने वीणा लेकर देखी। उस वीणा में कहीं एक स्थान पर रहे हुए उस बीज को दैवज्ञ की तरह देखा। फिर मान्त्रिक की तरह आकर्षित करने के समान दण्ड से तन्त्र को सूत्र रहित करके उस सूक्ष्म बीज को सूक्ष्म दृष्टि से निकाल कर दिखाया। फिर अपने पास रहे हुए सूत्र से वीणा को सज्जित करके बीज रहित उस वीणा को नारद की महती वीणा की तरह बजाया। उस वीणा ध्वनि को सुनते ही सभी जन सुधा कुण्ड में सुखमय डुबकी लगाने के समान हो गये। तब देवदत्ता ने कहा-अहो! आप इस पृथ्वी पर अद्भुत है। निश्चय ही आप नाट्य वेद के छिपे हुए रूप में सुष्टा है। वीणावादक ने भी अंजलिपूर्वक नमस्कार करते हुए कहा-हे वीणाचार्य! आप अभी मेरा शिष्यत्व स्वीकार कीजिये। उस धूर्तराज ने कहा-मैं इतना अच्छा नहीं जानता हूँ। बल्कि विक्रमसेन नामके कलाचार्य हैं। काश्मीर में भारती की तरह पाटलीपुत्र में उनका निवास है। मैं और मूलदेव उनके अन्तेवासी शिष्य थे। उसी समय विश्वभूति नामक नाट्य कलागुरु आये। सभी ने उनकी उपाध्याय के समान पूजा की। तब मठ में रहे हुए शिष्यो की तरह निःशंक होकर प्रत्युत्पन्न मति वाले धूर्तराज के द्वारा पूछे जाने पर भरत प्रणीत नाट्य शास्त्र आदि तत्क्षण बताया। तीन-चार रहस्य की बातें पूछने पर उसने कहना आरम्भ किया। परंतु धूर्तराज के मार्मिक प्रश्न पूछने पर शीघ्र ही कर्क सक्रान्ति के सूर्य के समान वे निरुत्तर हो गये। लज्जित होकर तिरस्कार के भय से उत्तेजित होकर "अभी आता हूँ" ऐसा कहकर विश्वभूति शीघ्रता से चला गया। .. तब लक्षपाक तेल लेकर मालिश करने के लिए एक अंगमर्दक देवदत्ता के पास आया। मूलदेव ने उससे कहा-लाओ! मैं मालिश करूँगा। देवदत्ता ने साश्चर्य पूछा-क्या आप यह भी जानते हैं? उसने कहा-मैं मालिश के जानकार व्यक्ति के पास बैठता था। अतः हे सुन्दर भोंहोवाली। आज मालिश करने के बाद पता लगेगा कि मुझे 142
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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