SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कामदेव की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् वाहनों की प्रचुरता से पृथ्वी पर चलना दुर्भर हो गया था। आकाश में भी विमानों की आवाजाही से आकाश मार्ग भी जटिल हो गया था। अतः किसी भी प्रकार से वह भगवान के समीप पहूँचा। स्वामी को देखकर क्षणभर के लिए उसकी दृष्टि उन पर स्थिर हो गयी। फिर विस्मय को छोड़कर प्रदक्षिणा करके वंदना, नमस्कार करके अंजलि बद्ध होकर प्रभु के समीप बैठा। सर्वभाषा में अनुवाद होनेवाली योजनगामी वाणी द्वारा कर्म के मर्म को बतानेवाली धर्मदेशना प्रभु ने दी। उस देशना को सुनकर, राजा, राजन्य, सार्थवाह आदि ने प्रतिबुद्ध होकर प्रभु के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। कामदेव भी तृषित की तरह प्रभु की वाणी का सुधापान करके शीत से अंगों के कंपन की तरह रोमांचित हो उठा। फिर उसने प्रभु से कहा-जिस प्रकार ये लोक आपके पास धर्म सुनकर प्रव्रजित हुए हैं, वैसे मैं समर्थ नहीं हूँ। जैसे-लंगड़ा व्यक्ति वेग से दौड़ नहीं पाता, वैसे ही मैं भी संयम मार्ग पर नहीं दौड़ पाऊँगा। आपके द्वारा बाद में कहे गये गृहीधर्म को मैं ग्रहण करुंगा। हे स्वामी! उतना ही भार उठाना चाहिए, जितनी कि शक्ति हो। भगवान ने कहा-हे सुमते! ऐसा ही करो। उसी व्रत का आचरण करो, जिसमें दुःख उठाते हुए मन को छोटा न करना पड़े। तब उसने वीर जिनेश्वर के पास सम्यक्त्व मूल १२ व्रतों को श्रावक बुद्धि से ग्रहण किया। स्वामी ने उसे शिक्षा देते हुए कहा-तुम्हारे द्वारा पवित्र गृहीधर्म स्वीकार किया गया है। तुमने इसे अचिन्त्य चिंतामणि की तरह पाया है। अतः इसे हारना मत। इस गृहीधर्म रूपी तरु का सद्भाव से सिंचन करना। यह धर्म तुम्हें स्वर्ग तथा अपवर्ग के फल को दिलानेवाला है। सिद्धिरूपी नगरी में जानेवाले को मोहकण्टकादि से रक्षा करने के लिए पादुका के समान प्रभु ने उसे शिक्षा दी। उसे ग्रहणकर कामदेव अपने आप को धन्य मानता हुआ घर चला गया। प्रतिदिन साधुसम्पर्क करते हुए वह धीमान तत्त्व तथा अतत्त्व के विषय में परीक्षक के समान हो गया। नित्य धर्मोपदेश श्रवण से वह लब्धार्थ हो गया। धारण करने से गृहितार्थ तथा संदेह होने पर पृच्छा करने पर उसके उत्तर से वह निश्चितार्थ हो गया चक्रवर्ती के निधान की तरह अत्यन्त सार भूत जीव-अजीव आदि नव तत्त्वों को भी उसने उपलब्ध किया। जैसे तपाये जाते हुए लोहे के गोलक में अग्नि एकीभूत हो जाती है, वैसे ही वह भी अर्हत् धर्म से भेदित होकर उससे एकाकार हो गया। यही एक धर्म है, अन्य कोई नहीं है-इस प्रकार निश्चय करके भूतल पर अचल पर्वत की तरह वह जिन-प्रवचन में अचल हो गया। सूर्योदय से सूर्यास्त तक में अंश मात्र समय का बिना निवारण किये वह घर पर भी धर्मशाला की तरह दान देता था। चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा तथा अमावस्या इन चारो पर्वतिथियों में वह पौषध करता था। इस प्रकार निर्मल आहेत-धर्म का लगातार पालन करते हुए उसे चौदह वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार पौषध-शाला में सर्वरात्रि की प्रतिमा स्वीकार करके कामदेव मन को ध्यान में लीन करके बैठा हुआ था। उस समय शक्रेन्द्र ने अवधिज्ञान से अवनि तल को देखा, तो महर्षि की तरह प्रतिमा में स्थित कामदेव को देखा। अति विस्मय पर्वक मत्तहाथी के कम्भस्थल की तरह अपने सिर को हिलाते हए संपर्ण देवलोक के देवों के सामने कहा-कामदेव गहस्थ होते हए भी चम्पानगरी में अचल ध्यान में स्थित है अलोकखण्ड के समान देव तो क्या, इन्द्र भी उसे ध्यान से चलित नहीं कर सकता। किसी दुर्जन सुर ने परगुण में द्वेषी होने से उस मनुष्य की प्रशंसा को न सह सकने से ईष्यापूर्वक देवेन्द्र से कहा-वही मानना चाहिए, जो मन को भाता हो। हे प्रभो! आपने झूठ को भी सत्यापित किया है। यह गृहस्थ तो धातुओं से जुड़े हुए सर्वांग वाला मनुष्य-मात्र है। अगर उसका वर्णन आप करते है तो कौन बुद्धिमान इस पर श्रद्धा करेगा। मैं अकेला ही बड़ी आसानी से उसे ध्यान से चलित बना सकता हूँ। क्योंकि शैलोऽपि चाल्यते देवैः परमाणोर्हि का कथा? देवों द्वारा तो पर्वत भी चलित हो सकता है, परमाणु का तो कहना ही क्या? इतना कहकर वह ईर्ष्यालु नीच देव शीघ्र ही चम्पा में अवतीर्ण हुआ। कहा भी है 137
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy