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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् कामदेव की कथा अन्त में वे दोनो मित्र निर्मल ध्यानपूर्वक उसी नाम के साथ सौधर्म देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुए। प्रियङ्कर की पत्नी भी प्रिया के धर्म-अनुमोदन से स्वर्ग में भी श्रीप्रभा नामकी उसकी प्रिया देवी बनी। प्रियंकर सुर ने अवधिज्ञान से अपना भावी जन्म स्थान तथा धर्म में आत्म-प्रमाद जानकर च्युत-काल नजदीक आने पर अपने मित्र को कहा-हे मित्र! तुम अपने उद्यम से मुझे धर्म में प्रेरित करना। वहाँ से च्युत होकर तुम यहाँ अमरचंद्र नाम के पुत्र हुए और तुम्हारी देवी च्युत होकर यह जयश्री के रूप में उत्पन्न हुई है। दुःखी होने पर ही मनुष्य धर्मपरायण होते है-यह विचारकर तुम्हें धर्म में उद्यम करवाने के लिए तुम्हारा वह मित्र देव तुम्हारे ही रूप में आया था। शुद्ध शीलवती जयश्री ने उसको तुम्हारे रूप में देखकर अपना पति जानकर अपने आवास खण्ड में प्रवेश करने दिया। तुम्हारी विद्या को उसीने विडम्बनापूर्वक भुलवा दिया। अतः इस प्रकार के हितकारी मित्र पर क्रोध मत करो। मुनि यह सारा वृतान्त बता ही रहे थे, तभी वह देव जयश्री तथा कुरुचन्द्र को लेकर वहाँ आया। राजा सूर्य का तिरस्कार करनेवाली उसकी रूप की कांति को देखकर विस्मित रह गया। उसे देखते हुए राजा को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। सारा तत्त्व ज्ञात हुआ। तब उसने कहा-हे मित्र! तुमने बहुत अच्छा किया। मोक्ष सुख प्राप्तकराने वाले धर्म में अब उद्यम करूँगा। जयश्री ने भी उनके बताने से अपने पूर्वभव को याद किया। फिर देव सभी को क्षण भर में नगर में ले आया। नृप ने राज्य पर जयश्री के पुत्र को बैठाया और अपनी प्रिया के साथ उन्हीं मुनि की सन्निधि में व्रत ग्रहण किया। वह मित्र देव कृतकृत्य होता हुआ राजर्षि और उन मुनि को नमस्कार करके अपने विमान में चला गया। राजर्षि ने भी दीर्घकाल तक दुष्कर तप तपते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया। फिर संपूर्ण कर्मों का क्षयकर मोक्ष को प्राप्त किया। जिस प्रकार अमरचन्द्र के जीव ने प्रियंकर के भव में परम निवृत्ति के हेतु भूत देशावकाशिक व्रत का एकचित्त से आराधन किया, उसी प्रकार दूसरे मनुष्यों द्वारा भी इस व्रत को पालना चाहिए। इस प्रकार देशावकाशिक व्रत में अमरचन्द्र की कथा पूर्ण हुई। अब पौषधव्रत पर कामदेव के आख्यानक को बताते हैं ॥ कामदेव की कथा || द्वीप चक्र की नाभि के द्वीप में भरत क्षेत्र है। वहाँ देवनगरी के प्रतीक रूप चम्पा नाम की विख्यात नगरी है। संपूर्ण शत्रुओं को त्रस्त करनेवाला वहाँ का राजा जितशत्रु था। उसने अपनी वीरचर्या द्वारा वीरों की पंक्ति में प्रथम स्थान प्राप्त किया। रूप से तथा नाम से कामदेव नामक एक गृहपति था, जो भला एवं जनवत्सल था। अत्यधिक नामी ईश्वर, श्रेष्ठि, सार्थवाह, कुटुम्बी आदि के सभी कार्यों की वह अपने कुटुम्ब की तरह चिन्ता करता था। प्रकृति से भद्रिक उसके भद्रा नामकी सेठानी थी। विभिन्न दुःखों से परिश्रान्त मन वालों के लिए वह विश्रान्ति का स्थान थी। उसने छ करोड़ स्वर्णमोहरों की निधि (भूमि में गाड़ी हुई थी) की हुई थी। ब्याज रहित छ-छ करोड़ स्वर्ण मुद्रा उसके संपूर्ण व्यवसाय में लगी हुई थी। इस प्रकार अठारह करोड़ स्वर्ण मुद्रा का वह धनी था। वह राजमान्य, प्रजा का आधार और महाजनों का धोरी था। उसके छः गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में हजार हजार गाये थीं। जिनके दूध की नदियाँ सदा घर में बहती थीं। उसके पाँच सौ हल थे। वह गृहपति कृषि-सिद्ध शोभारत्न था। पुण्य की मूर्ति स्वरूप उसके छः बड़े-बड़े जहाज थे। जो समुद्र के दूसरे किनारे से सदैव श्रिय को लाते थे। एक बार वहाँ नगर की उत्तरपूर्वदिशा के उद्यान में स्वयं श्रीमान महावीर जिनेश्वर पधारें। बारह प्रकार की परिषद यथास्थिती वहाँ बैठी। यह सुनकर कामदेव भी प्रभु को वन्दन करने के लिए घर से निकला। वहाँ रथादि - 136
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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