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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सुदर्शन शेठ की कथा करता था। देवलोक से आयी हुई देवी के समान उसके अभया नामकी महारानी थी। केवल नेत्र विलास के कारण ही वह मनुष्यनी प्रतीत होती थी। उसका रूप यौवन सब कुछ देवी के समान था। रूप से वह इन्द्राणी को, सौभाग्य से वह पार्वती को, वचन - लब्धि के द्वारा सरस्वती देवी को पराभूत करती थी । उसी नगरी में महाजनों में श्रेष्ठ नगर सेठ ऋषभदास नामका श्रेष्ठी था । अर्हत् प्रवचन रूपी उद्यान में वह विलास करने को उस वाणी रूपी रस को ग्रहण करने के लिए सदैव लालायित रहता था। उसकी पत्नी अपने नाम के अनुरूप अर्हद्दासी थी | जय श्री के समान धर्म में स्थित, राज्य श्री के समान बहुत समर्थ थी । उस श्रेष्ठि की भैंसो को चराने वाला सुभग नामका महिषीपालक था। धर्म को बिना देखे, बिना सुने भी स्वभाव से भद्र था। एक दिन सायंकाल भैंसो को चराकर वापस आ रहा था, तो उसने नगर के समीप प्रतिमा की तरह स्थित एक मुनि को देखा। उसने विचार किया कि ये मुनि इतनी भयंकर शीत में बिना कुछ ओढ़े तपस्या में कैसे स्थिर खड़े रह पायेंगे। इस प्रकार विचार करता-करता वह जंगल से घर चला गया। पास में ही मुनि को वैसी ही स्थिती में देखा। रात्रि में पुनः शीत से पीड़ित उन साधु को याद करके वह चिन्तातुर हो गया । प्रभात न होने पर भी रात्रि में ही वह भैंसो को लेकर जंगल चला गया। पास में ही मुनि को वैसी ही स्थिती में देखा । भक्ति से प्रे होकर नमस्कार करते हुए वह वहाँ बैठकर तब तक पर्युपासना करता रहा, जब तक सूर्योदय से तिमिर के समूह का नाश नहीं हो गया। फिर वह साधु णमो अरिहंताणं कहकर उस महिषीपाल के देखते ही देखते आकाश में उड़ गये। सुभग ने उन शब्दों को सुनकर विचार किया कि यह आकाश में गमन करने की विद्या है, अतः दिन रात उस नवकार मन्त्र के आदि पद का रटन करने लगा। उन शब्दों को सुनकर सेठ ने पूछा- तुमने यह पद कहाँ से सीखा? यह तो भव कूप में गिरते हुए प्राणियों के हाथों का अवलम्बन है। उसने सारा वृतान्त सेठ को बताया। तब सेठ ने कहा- यह केवल आकाशगामी विद्या ही नहीं है, बल्कि सर्व-ऋद्धि को देनेवाली है। नर, सुर, नरेन्द्र, खेचर आदि लब्धियाँ, तीर्थंकरत्व रूपी श्री सभी इसी के प्रभाव से है। इस पंच परमेष्ठि की क्या स्तुति करूँ? केवलज्ञानी को छोड़कर कोई भी इसका सर्वातिशय वर्णन करने में समर्थ नहीं है। हे भद्र! तुम धन्य हो कि तुमने यह कल्याणकारी पद प्राप्त कर लिया है। अपवित्र मनुष्य तो इसको बोलना भी नहीं जानते। उसने भी कहा- हे श्रष्ठि ! मैं इसका जाप क्षण भर के लिए भी छोड़ने में समर्थ नहीं हूँ। श्रेष्ठ ने कहा- इसको पूरा पढ़कर याद कर लो। उसने प्रसन्न होकर पूरा पढ़ लिया, याद करके उसका परावर्तन करने लगा। इसी तरह उसका मन्त्र जाप चलता रहा। इधर वर्षाऋतु आ गयी। जैसे जीव स्वरूप पर मिथ्यात्व पटल छा जाता है, वैसे ही आकाश काले-काले पानी से भरे बादलों से आच्छादित हो गया। आकाश रूपी उपवन में जल रूपी भृत्य की गोद में बिजली रूपी लताएँ, वर्षा रूपी नाट्य लीलाएँ व वाद्य रूपी गर्जना की ध्वनि प्रवृत्त हो गयी । दुर्दुर नामक आतोध के वादन की तरह मेंढ़को की आवाज शोभित होने लगी । बाणधारा की सहोदरा की तरह जलधारा पड़ने लगी। नवांकुरों से आकीर्ण तथा इन्द्रगोपक A द्वारा आकीर्ण पृथ्वी मानों माणक रत्नों से बंधी हुई पृथ्वी के समान हो गयी । इस प्रकार से बरसती हुई वर्षा धारा के बीच एक दिन सुभग भैंसो को चराकर सायंकाल अपने घर की ओर लौट रहा था। बीच में नदी में पूर आ जाने से उसे तैराना दुष्वार हो गया। भैंसें तो वैसे ही पानी में बैठने के लिए आतुर होती है। वे जलयोगप्रिया होती हैं। वे पानी के पूर के साथ जाने लगीं। सुभग ने सोचा कि कहीं ये दूसरे किनारे से दूसरे क्षेत्र में प्रवेश न कर जायें अतः नमस्कार का जाप करते-करते उसने पूर के पानी में छलांग लगा अशुभ कर्मों के उदय से छलांग लगाते ही, पानी में नहीं दिखने योग्य खेर की लकड़ी में गडी हुई कील पर गिरा और वह कील उसके पेट में घुस गयी। पंचपरमेष्ठि के ध्यान में मग्न वह मरकर शुभ कर्मों के उदय से उसी 100
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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