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________________ रौहिणेय की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् त्याग करना पड़ेगा। या फिर जीने को इच्छा होने से पिता को छोड़कर अन्यत्र जाकर रहना होगा। पर यद्वा सन्धात्यागो न किं मृतिः। प्रतिज्ञा तोड़ने की अपेक्षा मेरा मरना ही श्रेष्ठ है। तभी कहीं से आया हुआ एक पुरुष अपने सामने देखा। सामुद्रिक शास्र में वर्णित चोर के सभी लक्षणों से वह लक्षित था। उसने अभय से कहा-क्यों चिंतित दिखायी दे रहे हो? अभय ने कहा-मेरी प्रेमिका गरीब की पुत्री है। अन्य सभी दिन मैं खाने-खिलाने यहाँ आता हूँ। वह भी आती है। पर आज नहीं आयी। अतः चिन्तातुर हूँ। उसने कहा-चिन्ता मत करो। आओ! भोजन करने चलते है। अभय ने मन ही मन कहा-तुम्हें देखने से मेरी चिन्ता तो दूर हो गयी है। तब अभय उसके साथ नगर के मध्य में आ गया। अपने कंदोई की दूकान में गया। उसने भी भोजन दे दिया। अपने कृत्य के लिए गये हुए उसके पीछे छिपकर जाने के लिए अभय ने भी यह कहा कि मैं कुछ ही क्षणों के अनन्तर भोजन करूँगा-इस प्रकार कहकर उसके पीछे-पीछे चला गया। आधीरात को उसने किसी ऊँचे घर में सेंघ लगायी। खात्री खोदकर चोरी का माल लेकर अभय के डर से निर्भय वह वहाँ से निकला। "चोर-चोर! देखो! आगे चोर जा रहा है।" अभय के इस प्रकार कहने पर चोर ने अभय को पहचान लिया। उसके डर से भयभीत होकर भी जल्दी से उसने कहा-कहाँ है? कहाँ है? घर में खोदी हुई खात्री में माल वापस डालकर शीघ्रता से हवा की तरह वेग से वह दुष्ट बुद्धि चोर भाग गया। अभय ने भी रक्षकसिपाहियों से कहा-दौड़ो! दौड़ो! पकड़ो! पकड़ो! चोर यह जा रहा है। यह जा रहा है। जब तक वे सभी दौड़ते, तब तक वह भूमि को छोड़कर बन्दर की तरह उछलकर घरों को लाँघता हुआ कोट के बाहरी प्राकार की तरफ गया और मृग की तरह पकड़ा गया। रक्षकों द्वारा दबोच लिया गया। रक्षकों द्वारा अभय को अर्पित चोर अभय द्वारा राजा को अर्पित किया गया। राजा ने उससे पछा क्या तम रौहिणेय हो? अपनी बुद्धि का सहारा लेकर उसने भी राजा से कहा-चोर नहीं होते हुए भी मैं चोर हूँ। देव! मेरा निग्रह कीजिए। अभय की प्रतिज्ञा मेरी मृत्यु से ही पूर्ण होगी, मेरे जीने से नहीं। राजा ने कहा-तो तुम चोर नहीं हो? उसने कहा-मैं चोर कैसे हो सकता हूँ? मेरा नाम दुर्गचण्ड है। मेरा परिवार शालिग्राम में है। मैं तो भोजन करने के लिए अपने घर जा रहा था। राक्षस के समान आरक्षों द्वारा अक्षिप्त भूमि देखते-देखते बहुत रात बीत गयी। भय से प्रकाश पड़ते ही मैं बाहरी आरक्षगृह में गिर गया। मारी हुई मछली को पकड़कर लाये हुए मछुआरों की तरह मैं लाया गया। अतः हे देव! उनके द्वारा बिना अपराध के मैं चोर की तरह बाँधा गया। और अब यहाँ लाया गया हूँ। हे नीतिज्ञ! जो करना है, सो करिए। तब राजा ने उसे जेल में डालकर अपना गुप्तचर उसके गाम में भेजा। उस दीर्घदर्शी चोर द्वारा गाँववालों को पहले ही संकेत कर दिया गया था। राजपुरुषों ने जो भी पूछा, वह सब उन्होंने बता दिया। दुर्गचण्ड यहाँ रहता है, पर अभी कहीं गया हुआ है। यह सब उन्होंने लौटकर राजा को बताया। अभय विचार करने लगा-मेरे द्वारा जो चोर देखा गया, वह निश्चय ही यही है। लेकिन यह शठता की निधि रूप है। उसकी परीक्षा करने के लिए अभय ने एक सप्तखण्ड वाले महल में स्वर्ण, रत्न, मुक्तामणियों द्वारा रचित देवलोक के विमान के समान एक हॉल सुसज्जित करवाया। तुम्ब रूप गाँन्धर्व नारियो तथा अप्सराओं, देवों के समान दास-दासियों का समूह वहाँ स्थापित करने से देवलोक से भी अधिक आभावान वह महल लग रहा था। ___ तब अभयकुमार ने उसको खूब मदिरापान करवाकर मूर्छित बना दिया। उसी अवाचा में उसे देवदूष्य वस्र पहनवाकर रत्नजटित पलंग पर उस सप्तखण्डी महल में सुला दिया। नशा खत्म होने पर वह उठा, तो उसने उस अदृष्ट, असंभाव्य, दिव्य, अद्भूत देव ऋद्धि को देखा। तब अभय द्वारा सिखाये गये नर-नारी गणों द्वारा जय-जय 97
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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