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रौहिणेय की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
पिता के समान ही चौर-कर्म शुरु किया । एक दिन राजगृह में श्री वीर जिनेश्वर का समवसरण लगा। योजनगामी वाणी को धारण करती हुई उनकी देशना हुई । रौहिणेय उस समय राजगृह नगर की ओर जा रहा था। बीच में ही समवसरण देखकर उसने विचार किया- अगर इस पथ से जाता हूँ तो अर्हत् वचन सुनने पर पिता के आदेश का लोपन होगा और दूसरा पथ नहीं है । इधर बाघ और उधर नदी के समान स्थिती होने से वह विचार करके कानों
अंगुली डालकर शीघ्र ही राजगृही को गया । अपना कार्य करके पुनः वैसे ही घर आ गया। इस प्रकार समुद्र की लहर की तरह वह आता-जाता रहा । समवसरण के पास से शीघ्रता से निकलते हुए एक दिन उसके पाँव में काँटा गड़ गया, मानो शिकारी के शरीर भाला घुस गया हो । पाँव से उस काँटे को निकाले बिना वह एक कदम भी जाने में समर्थ नहीं हुआ। अतः हाथ काँटे को निकालने के लिए उसने एक कान से अंगुली निकाली। और तभी भगवान की वाणी उसके कान में प्रवेश कर गयी कि देवों की पुष्पमाला कभी मुरझाती नहीं । मन इच्छित कार्य पूर्ण होते हैं। उनके पाँव भूमि का स्पर्श नहीं करते। उनको पसीना नहीं आता तथा उनकी दृष्टि निर्निमेष होती है अर्थात् वेल नहीं झपलाते। हाय! मैंने बहुत सारी वाणी सुनली- इस प्रकार कहकर शीघ्र ही काँटे को निकालकर पुनः कर वह उसी तरह चला गया। सुनी हुई बातों को भूलने का प्रयत्न किया वैसे-वैसे वे बातें
दृढ़ हो गयीं।
इस प्रकार प्रतिदिन पुर में चोरी होते देखकर महाजनों ने नृप के पास जाकर उपहार भेंटकर अर्ज किया कि देव! आप जैसे राजा के रहते हुए हमें अन्य किंचित भी भय नहीं है, किन्तु निर्नाथ की तरह उस चोर ने सभी घरों को श्री - विहीन कर छलनी बना दिया है। चोर ने सब कुछ लूटकर लोगों को मुनिजन की तरह निःस्व बना दिया है। यह सब सुनकर क्रोधपूर्वक राजा ने भृकृटि टेढ़ी करते हुए सोंठ, मध व मिर्च के मिश्रण रूप त्रिकटु के समान कटु वचनों द्वारा आरक्षकों को कहा- अरे ! मेरे ऋणदाताओं के अंश का हरण करनेवालें से तुम उनकी रक्षा नहीं करते । केवल रक्षा करने के लिए आजीविका ही ग्रहण करते हो, रक्षा तो नहीं करते। उसने कहा- देव! क्या करूँ? वह तस्कर सामान्य नहीं है। उसको पकड़ना शक्य नहीं है, क्योंकि वह वेग से उड़ने के समान गायब हो जाता है। हम तो उस आकाश चारी के सामने भूमिचारी हैं। अतः कैसे समर्थ हो सकते हैं। अतः हे देव! उसके लिए और कुछ ही कीजिए । मृगों के बीच केसरी की तरह यह असाध्य चोर है ।
श्रेणिक ने अभयकुमार का मुख देखा। अभय ने भी कहा- देव ! आखिर यह मनीषि चोर कब तक चोरी करेगा। अगर सात दिन के अन्दर अन्दर चोर को पकड़कर नहीं हाजिर करूँगा तो खुद को आपके हवाले कर दूंगा। यह सुनकर सभा के मध्य किसी के साथ आये हुए चोर ने अभय को कहा- तुम्हारी यह प्रतिज्ञा युक्त नहीं है। इस प्रकार की जल्दबाजी अल्पबुद्धि वाले को ही शोभती है । पर अब सोचने से क्या फायदा? अपने वचन का निर्वाह करो। इस प्रकार कहकर रौहिणेय ने भी मन में विचार किया कि अगर इन सात दिनों में मैं चोरी नहीं करूँगा, तो मैं लोहखुर का बेटा नहीं। इस प्रकार सोचकर खात्री देकर ऋषभ कूट पर पद्मादि आकृति करके उस पर स्वयं रौहिणेय लिखा । अभय भी शून्य देवकुल आदि सभी चोरों के छिपने के स्थान पर घूम-घूमकर चारों ओर देखता हुआ उद्यत हुआ। खात्री को नहीं देखता हुआ चोर को नहीं प्राप्त करता हुआ गुलाम की तरह अभय छ दिन तक न सुख से सोया, न बैठा। सातवें दिन ईंट द्वारा प्राकार करवाकर उसके बाहर पादचारी सेनिकों द्वारा मानव-प्राकार बनवाकर सर्वत्र अपने संपूर्ण आरक्षकों को अनुशासित करके बैठा दिया। ईंटो के प्राकार के बाहरी तरफ अभय स्वयं अन्य वेष बनाकर बाहर देखता हुआ चिन्तापूर्वक विचार करने लगा। राजा के आगे बिना सोचे समझे मैंने दुष्प्रतिज्ञा कर ली । ताप के सामने हिम की तरह मेरा व्रत - मनोरथ विलीन हो गया। अगर तस्कर नहीं मिला तो या तो मुझे प्राण
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