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________________ मेतार्य महर्षि कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् इस प्रकार इस आख्यान को सुनकर चैत्यद्रव्य तथा चैत्यवित्त के उपभोग का त्याग करना चाहिए। भगवान के धर्मतत्त्व को जाननेवाले सभी सुसत्त्ववालों द्वारा यत्नपूर्वक जिनगृह की रक्षा करनी चाहिए, चैत्य-धन बढ़ाना चाहिए। उस प्रकार से उच्च स्वर्गसुख प्रथम पाकर बाद में वे मोक्ष रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करेगा। ___इस प्रकार चैत्य द्रव्य के भक्षण, रक्षण, प्रवर्धन व फल को बतानेवाली संकास की कथा समाप्त हुई।।५८ से ६०॥ इसी के साथ पूज्य श्री चक्रेश्वर सूरि के द्वारा प्रारंभ, उनके प्रशिष्य श्री तिलकाचार्य द्वारा निर्वाहित सादिम सम्यक्त्व वृत्ति समर्थित हुई। देवतत्त्व की व्याख्या पूर्ण हुई। ||२|| धर्मतत्त्व ।। उस देव तत्त्व को भव्य द्वारा जानने के लिए धर्म का उपदेश करते हैं। इस सम्बन्ध से आयी हुई मूल द्वार गाथा तथा क्रमप्राप्त धर्मतत्त्व का अब वर्णन किया जाता है जीयदयसच्चवयणं परधणपरिवज्जणं सुसीलं च । खंती पंचिंदियनिग्गहो य धम्मस्स मूलाई ॥१॥ (६१) जीव दया, सत्य वचन, परधन का त्याग, सुशील, 'च' शब्द से परिग्रह की विरति, क्रोधनिग्रह रूप क्षान्ति, इसमें शेषकषायों का भी निग्रह तथा अपनी पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना-ये सभी धर्म का मूल हैं।।६१।। धर्म भी दो प्रकार का है-गृहस्थ धर्म तथा यति धर्म (साधु धर्म)। गृहस्थ धर्म के अभ्यस्त जन प्रायः यतिधर्म के योग्य होते हैं। अतः पहले गृहस्थ धर्म को कहते हैंसम्मत्तमूलमणुवयपणगं तिलि उ गुणव्बयाई च । सिक्खाययाइं चउरो बारसहा होई गिहिधम्मो ॥२॥ (६२) सम्यक्त्वमूल पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह प्रकार के व्रत गृहस्थ के होते हैं।।६२।। अब बारह व्रतों का नाम बताते हैंपाणियह मुसावाए अदत्त मेहुण परिग्गहे थे। दिसिभोग दंड समइय दसे तह पोसहविभागे ॥३॥ (६३) सूत्र के सूचक होने से प्राणातिपात विरति, मृषावाद विरति, अदत्तादान विरति, मैथुन विरति, परिग्रह विरति, दिशाविरति, भोगोपभोग विरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक व्रत, देशावकाशिक व्रत, पौषध व्रत तथा अतिथिसंविभाग व्रत-ये बारह व्रतों के नाम है। प्रत्येक व्रत के परिपालन के फल की सूचक कथा कही जाती है। सबसे पहले प्रथम व्रत परिपालन में मेतार्यमहर्षि की कथा है। वह इस प्रकार है || मेतार्यमहर्षि कथा (प्राणातिपात-विरति) ।। यहाँ श्री अर्थात् लक्ष्मी के संकेत के निकेतन रूप साकेतपुर नाम का नगर था। वह लक्ष्मी से पराभूत की तरह अमरावती को भी तिरोभूत करता था। वहाँ का राजा चन्द्रावतंसक धर्म में एकान्तरूप से तत्पर था। उसका जिस प्रकार गुरुओं के प्रति सुमनोभाव था, वेसा ही वैरियों के प्रति भी था। अन्तःपुर के विशाल होने पर भी उसके - 87
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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